रविवार, 27 नवंबर 2011

जीवन की सबसे महत्वपूर्ण तारीख:


हमारे जीवन की सबसे महत्वपूर्ण तारीख:
"नवम्बर, २७"

बात ऐसी है कि १९५६ की २७/११ को जो हुआ उसके कारण भविष्य की प्रत्येक २७ नवम्बर को हमारे नाम से बधाई के तार और कार्ड आने लगे !आजकल इस तारीख़ के सूर्योदय से ही टेलीफोन की घंटी खनकने लगती है और प्रातः उठकर 'लेपटॉप ऑन' करते ही "ई.मेल" के "इन बॉक्स" में बधाई संदेशों की एक लम्बी सूची के दर्शन होते हैं ! समझदार हैं आप समझ ही गए होंगे कि ५५ वर्ष पूर्व २७/११ को ऐसा क्या हुआ था जिसने हम दो प्राणियों के लिए वह दिवस अविस्मरणीय बना दिया !

अपने सुख -शांतिमय दाम्पत्य जीवन के विषय में स्वयम अपने मुख से कुछ भी कहना अहंकार व दम्भ से प्रेरित हो अपने मुँह मियाँ मिटठू होने जैसा प्रयास ही कहा जायेगा ! हम दोनों हैं तो साधारण मानव ही -शंकाओं से घिरना , चिंता से घबराना , क्रोध करना और छोटी से छोटी बात पर दुखी होना हमारा भी जन्म सिद्ध अधिकार है ! परन्तु परम प्रभु की ऐसी अहेतुकी कृपा सदैव बरसती रही है कि विषम और प्रतिकूल परिस्थितियों में एवम आपसी मतभेद में भी शीघ्र ही इन प्राकृतिक कुवृत्तियों से छुटकारा मिलता रहा है तथा मानसिक संतुलन रखते हुए हमे इनसे जूझने की शक्ति मिलती रही !यह हमारे सद्गुरु द्वारा दिए गए निम्न मन्त्र के मनन -चिंतन से ही सम्भव हो सका है !

वृद्धी आस्तिक भाव की शुभ मंगल संचार
अभ्यूद्य सद्-धर्म का राम नाम विस्तार

मानव -मानव में "सद्गुणों" एवं 'सद्-धर्म" का प्रचार-प्रसार-विस्तार हो ,कथनी और करनी में सबका कल्याण करने की भावना हो , अपने इष्ट का अनन्य आश्रय हो ; हमने इस बीज मंत्र को अपने जीवन में चरितार्थ करने का यथासम्भव प्रयत्न जीवन भर किया !

"महाबीर बिनवों हनुमाना" नामक अपने इस ब्लॉग श्रंखला में प्रकाशित निज आत्मकथा में अब तक के ४६२ अंकों में मैंने अपने ऊपर प्यारे प्रभु के द्वारा की हुई अनंत कृपाओं की संदर्भानुसार चर्चा की है ! उस १९५६ के "२७ नवम्बर" के दिन जो विशेष कृपा "उन्होंने" हम दोनों "भोला - कृष्णा"'- नव दंपत्ति पर की , वह अति महती थी ! प्रभु की इस कृपा ने हम दोनों का समग्र जीवन ही संवार दिया !

प्रियजन ,मेरे उपरोक्त कथन से कृपया यह न समझें कि इस वैवाहिक गठबंधन से मुझे कोई आर्थिक अथवा भौतिक लाभ हुआ ! बचपन से संत कबीर दास जी का यह पद गाता रहा हूँ , सो सांसारिक उपलब्धियों की नश्वरता व क्षणभंगुरता से खूब परिचित था

यह संसार कागद की पुडिया बूंद पड़े गल जाना है
यह संसार झाड अरु झाखड आग लगे बर जाना है
कहैकबीर सुनो भाई साधो सतगुरु नाम ठिकाना है

कबीरसाहेब के कथनानुसार , मेरे परमसौभाग्य और सर्वोपरि "प्यारे प्रभु " की अनंत कृपा के फलस्वरूप , मुझे इस पाणीग्रहण में मेरे सतगुरु का ठिकाना मिल गया ! इससे बड़ा और कौन सा लाभ हो सकता है किसी मानव के लिए ?

भ्रम भूल में भटकते उदय हुए जब भाग ,
मिला अचानक गुरु मुझे जगी लगन की जाग !

मुझे ससुराल स्वरूप मिला "राम परिवार" और अनमोल , दहेज स्वरूप मिली ,सद्गुरु स्वामी सत्यानन्द जी महाराज से "नाम दीक्षा" ! जिस प्रकार पारस पत्थर के स्पर्श मात्र से "लोहा"- "सोना" बन जाता है ,उस प्रकार ही सद्गुरु के संसर्ग से आपका यह् अदना स्वजन -"भोला" - कच्ची माटी का पुतला , आज क्या बन गया है ? प्रियजन , आप देख सकते हैं , (मैं स्वयम तो अपने को देख नहीं सकता ) आप बेहतर जानेंगे कि यह लोहा अभी भी लोहा ही है अथवा कंचन के कुछ गुण अब उसमे उभर आये हैं !

तब २७/११/१९५६ को आपका यह माटी का पुतला, देखने में कैसा लगता था , मैं तो भूल ही गया था ,परन्तु हाल ही में हमारी छोटी बेटी प्रार्थना की बड़ी बेटी 'अपर्णा' ने ( हमारी प्यारी प्यारी "अप्पू" गुडिया ने ) जो आजकल भारतीय एयर फ़ोर्स में फ़्लाइंग ऑफिसर है भारत में क्षतिग्रस्त पड़े हमारे पुराने फोटो एल्बम के कुछ चुनिन्दा फोटोज स्कैन करके, इ.मेल द्वारा हमारे पास भेजे ! उनमे ५५ वर्ष पूर्व पुराने उस अविस्मरणीय दिवस के भी अनेक चित्र थे ! उनमे से दो चित्र नीचे दे रहा हूँ ! इन चित्रों में वर बधू (भोला-कृष्णा) के अतिरिक्त बाकी चारों महान व्यक्तित्व अब इस संसार में नहीं हैं ! दिवंगत इन सभी पवित्र आत्माओं का हमदोनों सादर नमन करते हैं और उनकी चिर शांति के लिए प्रार्थना करते हैं ! चित्र देखें :


विवाहोपरांत आयोजित रिसेप्शन में मध्यभारत के भूतपूर्व राजप्रमुख महाराज जीवाजी राव सिंधिया और मेरे पूज्यनीय पिताश्री के बीच में मैं (भोला)!


उसी अवसर पर , वधू कृष्णाजी के साथ महारानी विजया राजे सिंधिया तथा कृष्णा जी की बड़ी भाभी पूज्यनीय सरोजिनी देवी जी !

राजमाता के साथ इसी अवसर पर लिया हुआ एक मेरा भी चित्र था ! अप्पू बेटी ने वह फोटो नहीं भेजी ! सहसा मुझे अभी अभी उसकी भी कहानी याद आ गयी !आपको भी सुना ही दूँ ! प्रियजन ,जब हम विवाह के बाद पहली बार ग्वालियर गये , हमे पेलेस [महल] से खाने पर आने का निमंत्रण मिला ! खाने की मेज़ पर राजमाता ने ,वही उनके साथ वाला मेरा चित्र दिखा कर हंसते हंसते कहा था ,"भोला बाबू यह फोटो कृष्णाजी को नहीं दिखाइयेगा ,हम दोनों की ऐसी हंसी देख कर वह न जाने क्या सोचे " ! राजमाता के इस कथन पर कृष्णाजी तो हंसी हीं , मेज़ पर बैठे सभी लोग हँस पड़े !

एक और उल्लेखनीय बात याद आयी ! हम भोजन कर ही रहे थे कि राजमाता के पास एक अतिआवश्यक टेलीफोन काल आया जिसे सुनने के बाद उन्होंने मुझसे कहा , "भोला बाबू , आज के दिन आपका यहाँ आना हमारे लिए बड़ा शुभ रहा , इंदिरा जी का फोन था ,नेहरू जी हमसे मिलना चाहते हैं ,वह हमे ग्वालियर से लोक सभा का सदस्य बनवाना चाहते हैं !" हम सब ने उन्हें खूब खूब बधाई दी !" शायद उस बार वह पहली बार चुनाव में कांग्रेस के टिकट पर जीत कर "एम् पी" बनीं !आगे का इतिहास दुहराने से क्या लाभ ? हा एक बात अवश्य बताऊंगा कि उस महल के भोजन के बाद राजमाता के जीवन काल में मैं उनसे या उनके पुत्र माधव राव से एक बार भी नहीं मिला !

क्रमशः
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निवेदक : वही. एन. श्रीवास्तव "भोला"
सहयोग : श्रीमती कृष्णा भोला श्रीवास्तव
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शुक्रवार, 25 नवंबर 2011

नवम्बर का अंतिम गुरुवार

"धन्यवाद दिवस"
(" यू.एस.ऑफ अमेरिका" का "राष्ट्रीय पर्व" )

THANKS GIVING DAY
(celebrated annually on last Thursday of November in U.S.A)

आज सारे यू. एस. ए . में एक बड़ा त्योहारी माहौल है !

सत्रहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में ( लगभग १६२१ वीं ईस्वी में ), तीर्थयात्रियों की तरह अपनी आस्थाओं को एकाग्रता एवं दृढ़ता से निभाने के लिए किसी नयी धरती की खोज में ,जल- पोतों पर सवार हो कर कुछ पुर्तगाली योरप से अमेरिका के इस भू भाग में आये और जिस स्थान पर वे अपने जहाज़ से उतरे वह USA का यह MASSACHUSETTS मैसच्यूसेट्स राज्य है , जिसमे संयोगवश ,इन दिनों ,हम रह रहे हैं !

यू.एस.ए. वालों के लिए आज का दिन विशेष महत्व का है! नेटिव अमेरिकन्स (रेड इंडीयंस) और सागरपार से आये इन यात्रियों ने अपने आपसी सम्बन्ध सुदृढ़ करने की शुभेच्छा से १६७६ के नवेम्बर मास के किसी बृहस्पतिवार को एक सहभोज का आयोजन किया ! उस दिन औपचारिक रीति से दोनों पक्षों ने परस्पर मित्रता का हाथ मिलाया ! मूल अमेरिका वासियों नें प्रवासी योरोपिंअंस को इस भोज में "टर्की" नामक पक्षी का मांस खिलाया तथा कुछ अन्य खाद्यान्न जैसे मक्का ,शकरकंदी से बने पकवान ,(जिनसे ,तब तक ,वे विदेशी आगंतुक परिचित नहीं थे) उन्हें परोसे तथा आगे चल कर उन्हें इनकी खेती करने के गुर भी सिखाए !

१८६३ में अमेरिका के तत्कालीन प्रेसिडेंट अब्राहम लिंकन ने मूल निवासियों तथा यूरोप से आये प्रवासियों के बीच की आपसी सद्भावना को सुदृढ़ करने के उद्देश्य से नवम्बर के अंतिम गुरूवार को राष्ट्रीय पर्व घोषित किया और इस पर्व को "धन्यवाद दिवस" का नाम दिया ! इस दिन देश के सभी मूल ,धर्म, जाति,रंग के निवासी एकत्रित हो कर एक साथ भोजन करते हैं और एक दूसरे के प्रति, अपना आभार प्रदर्शन करते हैं ! आज के दिन स्कूल कालेज, दफ्तर , कारखाने बंद रहते हैं और यू. एस. ए . के निवासी परम्परागत रीति से इस दिवस को बड़े हर्षोल्लास के साथ राष्ट्रीय-पर्व के रूप में मनाते हैं !

यहाँ के अमेरिकन परिवारों के साथ हमारे जैसे प्रवासी परिवार भी अब इस पर्व में शिरकत करने लगे हैं ! हम भी सहर्ष ऐसी पार्टीज में जाते हैं ! बात ऐसी है कि जब हमारे विदेशी मूल के दामाद "उलरिख" जो जर्मन हैं , तथा हमारे छोटे भाई की इटेलियन धर्मपत्नी "जुलिया" हमारी होली दिवाली में , इतने हर्ष उल्लास से शामिल होते हैं तो यह अनुचित होगा यदि हम उनके द्वारा आयोजित किसी कार्यक्रम में सम्मिलित न हों !

इस दिन यहाँ का कुछ कुछ वैसा ही वातावरण बन जाता है जैसा कि आमतौर पर भारत के घरों में होली दिवाली या दूसरे तीज- त्योहारों के दिन अथवा किसी परिजन के तिलक- शादी-ब्याह ,यज्ञोपवीत-मुंडन ,छठी-बरही के समारोह के अवसर पर होता है! सब सम्बन्धी स्वजन किसी एक स्थान पर ( किसी एक के घर ) में एकत्रित होकर ,अति उमंग से , हर्षित मन से एक दूसरे का अभिनन्दन करते हैं ! गत वर्ष में ,उनसे मिले सहयोग के लिए , सब एक दूसरे को धन्यवाद देते हैं !

सालभर, दिन की रोशनी में , सूनसान दिखने वाली यहाँ की बस्तियों और उनकी सड़कों पर जितनी चहल पहल आज Thanks Giving के दिन दिखती है उतनी वर्ष में किसी अन्य दिन नहीं दिखाई देती ! यू. एस . में आज के दिन मकानों के सामने की सड़कों पर मोटरकारों की कतारें दिखाई देती हैं , घर के ड्राइव वे में परिवार के बड़े बच्चे "रोलर स्केटर" पर अपनी कलाबाजी का प्रदर्शन करते दीखते हैं ; "बेकयार्ड" और "फ्रंटयार्ड" में छोटे बच्चे अपने अभिवावकों के साथ"बेसबाल",फ्रिसबी" और "फ़ुटबाल" खेलने के लिए जिद करते नज़र आते हैं ! घरों के अंदर सह -भोज की तैयारी करते हुए वयस्क स्त्री पुरुषों के ठहाके और उनके पीछे कांच और चायना के बर्तनों के खनकने की आवाजे भी बीच बीच में कानों में पड़ती रहती हैं !

मूलतः यह पर्व अपने सभी प्रियजनों के साथ मिलने तथा औपचारिक ढंग से उनके साथ मेज़ कुर्सी पर बैठ कर फोर्मल लंच-डिनर जीमने का है !लंच-डिनर इस लिए कहा क्यूंकि यह भोजन , न तो दोपहर में होता है ,न रात्रि में ! यह भोजन ,दोपहर के बाद ,शाम के समय होता है और सूर्यास्त तक चलता रहता है !

इस "थेंक्स गिविंग मील" का नाम चरितार्थ होता है तब जब भोज में शामिल सभी व्यक्ति भोजन के बाद , एक एक करके , अपने अपने शब्दों में उन सभी व्यक्तियों शक्तियों और , चमत्कारों को धन्यवाद देते हैं और उनके प्रति आभार व्यक्त करते हैं जिन्होंने पिछले वर्ष उनपर कोई भी उपकार किया होता है ! अपने मातापिता, गुरुजन , घनिष्ट मित्रों से लेकर अपनी पत्नी अपने पति ,अपने बच्चे ,पोते पोतियों तक को लोग धन्यवाद देते हैं !

ह्म भी आज प्रोविडेंस गए थे ,मीनाक्षी बेटी के घर ,जहां उसने हर साल की तरह इस वर्ष भी सब परिवार वालों का "धन्यवाद-दिवस-भोज" आयोजित किया था ! यहाँ भी बहुत स्वादुल भोजन पाने के बाद सभी लोगों ने अपने अपने धन्यवाद संदेश दिए ! सबसे छोटे ६-७ वर्षीय बच्चे आनंद उल्रिख से प्रारम्भ होकर "धन्यवाद प्रकाशन" का भार , अंत में ,परिवार के ,उस समय वहाँ मौजूद , सबसे बुजर्ग सदस्य - "मुझ" पर पड़ी ! विश्वास करेंगे आप , उस समय मेरे मुंह में जैसे एक ताला लग गया ! उस प्रातः दैनिक १२ औषधियों के ऊपर एक विशेष पीड़ा निवारक दवाई लेने के कारण मैं उस शाम लगभग पूर्णतः शून्य हो गया था ! मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि मैं किसको किसको धन्यवाद दूँ , किसके किसके प्रति आभार व्यक्त करूं !

किसकिस का आभार जताऊँ किसकिस को मैं धन्यवाद दूं
श्रद्धा सुमन चढाऊँ किस पर, किसकिस के चरनों को बंदूं ?

धन्यवाद के वास्तविक अधिकारिओं की सुची में जिनका नाम हमे सदा सर्वदा याद रहता है वह हैं हमारे "परमपिता परमात्मा"! प्रभु के अनंत उपकारों को याद रखना और गिना पाना असंभव है ! "उनके" प्रति आभार जताने तथा उन्हें धन्यवाद में केवल इतना ही कह पाता हूँ :

धन्यवाद तुझको भला कैसे दूँ भगवान ! तूने है सब कुछ दिया यह काया यह प्रान !!
पलपल रक्षा कर रहा देकर जीवन दान ! क्षमा करो अपराध मम मैं "भोला" नादान !!

प्यारे प्रभु की कृपा का प्रत्यक्ष दर्शन हमे सर्व प्रथम अपने जन्म पर होता है उसके बाद भी अपने जीवन के एक एक पल में उनकी कृपा के दर्शन होते रहते हैं ! चलिए जन्म से ही हम "उनके" उपकारों की गणना शुरू करें :

लाखों योनि घुमाकर प्रभु ने दिया हमे यह मानव चोला !
बुद्धि विवेक ज्ञान भक्ती दे दरवाजा मुक्ती का खोला !!

ऐसे कुल में जन्म दिया जिस पर प्रभु तेरी दया बड़ी थी!
महावीर रक्षक हैं जिसके, आंगन 'उनकी" ध्वजा गडी थी!!

साँझ सबेरे नितप्रति होती थी जिस घर में तेरी पूजा !
बिना मनाये तुमको प्रभु जी होता कोई काम न दूजा !!

प्रियजन , प्यारे प्रभु हमे यह दुर्लभ मानव जन्म देते है ,हमे संसार का बोध कराते हैं ; मित्र -स्वजन -सम्बन्धियों से मिलवाते हैं जिनके संसर्ग में हम जीवन का अनुभव संचित करते है , ऐसे सद्गुरु से भेंट करवाते हैं जो हमे जीवन जीने की कला सिखाते हैं ! हर क्षण ही हम "उनके" किसी न किसी उपकार के आश्रय से आनंदमय जीवन जीते हैं !

अस्तु उस "परम पिता" को याद करते हुए , चलिए हम प्रेम से , मस्ती में झूम झूमकर ,"परमार्थ निकेतन" ,ऋषीकेश में नित्य गायी जाने वाली निम्नांकित पंक्तियाँ गायें और "उनके " श्री चरणों पर अपने श्रद्धा सुमन अर्पित करें और उन्हें गदगद कंठ से धन्यवाद दें --

हे दयामय आप ही संसार के आधार हो !
आप ही करतार हो हम सब के पालन हार हो !!

धनधान्य जो भी है यहाँ सब आपका ही है दिया !
उसके लिए प्रभु आपको धन्यवाद सौ सौ बार हो !!

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निवेदक: व्ही . एन. श्रीवास्तव "भोला"
सहयोग : श्रीमती कृष्ण भोला श्रीवास्तव
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सोमवार, 21 नवंबर 2011

शरणागति

परम धर्म है प्रेम


"धर्म" के विषय का मेरा ज्ञान उतने तक हीं सीमित है जितना जीवन के इन बयासी वर्षों में मैंने संत-महात्माओं के सत्संगों में पाया है ! यह मेरे पारिवारिक संस्कार , जन्म जन्मान्तर के संचित प्रारब्ध , गुरुजन से प्राप्त शिक्षा दीक्षा के कारण तथा परमात्मा की कृपा से हुआ !

हमारे सद्गुरु स्वामी सत्यानन्द जी महराज ने " प्रवचन पीयूष" मे कुछ ऐसा कहा है , "धर्म" अनुभव है ,जो वैज्ञानिकता के सम्मिश्रण और विश्लेषण प्रक्रिया से नहीं जाना जा सकता ! आत्मा प्रेम स्वरूप है ! "प्रेम" ही वास्तविक "धर्म" है !

परम प्रीति से राधना ,प्रभु परम आधार !
अपनी हिंसा टारना यही धर्म का सार!!

प्रीति लगाओ लगन से,परम पुरुष से नेह !
अपना आप सुदान कर कीजे परम सनेह!!

भक्ति भजन तव धर्म है कर्म योग है काम !
पथ तो तेरा प्रेम है परम भरोसा राम !!
(भक्ति -प्रकाश)
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संत रविदास ,कबीरदास ,नरसी भगत , तुकाराम , मीरा और चैतन्य महाप्रभु आदि अनेकों महात्मा इसी प्रेमपथ पर चल कर अपने प्रेमास्पद तक पहुंचे ! हरी नाम का प्याला पी पी कर वे खुद तो छके ही ,उन्होंने सबको वह आनंद रस पिलाया भी !
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Swami Sharnanandji

वृन्दाबन -मथुरा के "मानव सेवा संघ के संस्थापक प्रातः स्मरणीय प्रज्ञाचक्षु संत स्वामी शरणानंदजी महराज का यह दृढ़ मत था कि यह मानव जीवन प्रेम योनि है ! इस जीवन में ही मनुष्य को प्रेम की प्राप्ति होती है और किसी योनि में प्रेम की प्राप्ति नहीं होती !

स्वामी शरणानन्द जी के दर्शन तो मैं नहीं कर पाया लेकिन उनसे मेरा परिचय १९५६ में अपने विवाह के पश्चात हुआ ! मुझे याद है जब ससुराल के घर के मंदिर में स्वामी जी का चित्र दिखाकर मेरी धर्मपत्नी कृष्णा जी ने मुझे इन विलक्षण संत के विषय में बताया था ! उन्होंने बताया कि बचपन में जब वह सातवीं या आठवीं कक्षा में पढती थीं तब वह एकबार अपनी अम्मा के साथ ऋषिकेश गयीं और ,वहाँ वह "गीता भवन" में ठहरीं थीं जहां उन दिनों स्वामी शरणानंद भी ठहरे हुए थे ! हर शाम को गंगा आरती के पहले स्वामी जी वहाँ समीपवर्ती गंगातट पर सत्संग करते थे ! तेजस्वी मुखमंडल वाले उन नेत्रहीन संत का प्रथम दर्शन कृष्णा जी को वहीं हुआ !

उस सत्संग में कृष्णाजी ने देखा कि श्रद्धालु भक्तजन स्वामीजी के मुख से निकले प्रत्येक वचन को सुनते ही अपनी डायरी में अंकित कर लेते थे ! साधक गण प्रश्न पूछते थे और महाराज जी जटिल से जटिल अध्यात्मिक प्रश्न का हास्य परिहास्य के साथ सरलतम उत्तर दे देते थे ! स्वामी जी के उत्तर सरल के साथ साथ सरस भी थे ! कृष्णा जी को भी उस प्रश्नोत्तर में आनन्द आने लगा और वह भी डायरी लेकर स्वामी जी के द्वारा दिए धर्म विषयक प्रश्नोत्तरों को नोट करने लगीं ! स्वामी जी के एकाध उत्तर तो उन्हें तभी कंठस्थ हो गए थे और उस दिन भी उन्हें याद था ! कृष्णा जी ने उनमे से कुछ बताया भी !

परमात्मा को जानने की अपेक्षा उसे मानो !
उसे सर्वशक्तिमान मान कर जीवन को ऐसे जियो कि भगवान से प्रेम हो जाये ! इस एक साधना में सब कुछ आ जाएगा

किसी साधक के इस प्रश्न पर कि "प्यारे प्रभु हमे कहाँ मिलेंगे ? ,स्वामी जी का उत्तर था "सबसे प्रेम करो ;सबको सुखी रखो ;सबकी सेवा करो ;उन्हीं में तुम्हे प्रभु मिल जायेंगे!

स्वामी जी ने अपने प्रवचनों में "प्यारे प्रभु" का परिचय देते हुए साधकों को बताया कि :
"प्रेमियों में प्रेम वे ही हैं, ज्ञानियों में ज्ञान वे ही हैं, योगियों में योग वे ही हैं । सब कुछ वे ही हैं,और कुछ है नहीं । कोई और है नहीं, हो सकता नहीं, कभी होगा नहीं । वे ही वे हैं, वे ही वे हैं । उनका प्यारा प्रेमी साधक कह्ता है कि "तुम ही तुम हो, सब कुछ तू है, सब कुछ तेरा है, न मैं हूँ, न मेरा है; केवल तू है और तेरा है" । यह प्रेमियों का सहज स्वभाव है ।यह स्वभाव भी प्रेमियों को उन्हीं का दिया हुआ है!
अपने प्रेमास्पद (प्यारे प्रभु) सदैव अपने में ही हैं यदि उनमे हमारी अविचल आस्था है ! प्रेमास्पद के अस्तित्व तथा महत्व को स्वीकार कर उनसे आत्मीय सम्बन्ध बनाना अत्यन्त आवश्यक है । आत्मीय सम्बन्ध से ही साधक में प्यारे प्रभु के प्रति अखण्ड स्मृति तथा अगाध प्रियता की अभिव्यक्ति होती है ।

प्यारे प्रभु से ऐसा अटूट सम्बन्ध बनाने के लिए प्रियजनों

जोड़े रहो तुम तार प्यार का प्रभू के साथ
फिर देखो कैसे प्यार से वह थामता है हाथ
(भोला)
क्रमशः
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निवेदन : श्रीमती कृष्णा श्रीवास्तव एवं व्ही. एन. श्रीवास्तव
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शनिवार, 19 नवंबर 2011

हमारा धर्म

धर्म और अध्यात्म


प्रियजन मैं भारत के उन साधारण नागरिकों में से एक हूँ जो यथार्थ आध्यात्म के ज्ञान से पूर्णतःअनभिज्ञ हैं ! लगभग ३० वर्ष की आयु तक ,पारिवारिक परंपरागत सनातनी कर्मकांड को करना ही हमारी "धार्मिकता" का प्रतीक था ! त्योहारों -पर्वों पर व्रत-उपवास रखना,तथा गंगास्नान करना, मंदिरों में देवताओं की मूर्ति पर दूर से फूलों की बौछार करना , हनुमान जी की मूर्ति के मुख में ठूस ठूस कर मिठाइयां भरना , मंदिर में घंटा बजा कर प्रवेश करना और घंटा बजा कर ही वहाँ से निकलना, आरती की थाल में कुछ धन राशि डालना ,हाथ में माला घुमाते रहना ही हम अपना धर्म समझते थे ! ऐसी धार्मिकता का प्रदर्शन कर के हम अपने को अति धर्म परायण या धार्मिक सिद्ध करके समाज में प्रसिद्धि पाने का प्रयास भी करते थे;जिसमे हम थोड़ा बहुत सफल भी हो जाते थे ! अच्छा लगता था जब हम किसी को यह कहते सुनते थे कि, "भोला बाबू इस उम्र में ही कितने धार्मिक हो गए हैं !" पर वास्तव में क्या हम धार्मिक थे ?

अब जब अतीत के पृष्ठ पलटता हूँ तो ऐसा लगता है कि तब ह्म मंदिरों -देवालयों में केवल स्वार्थ सिद्धि के लिए ही जाते थे ! हम अपने "इष्ट देवों" से कुछ मांगने तथा उनसे कुछ प्राप्त करने की आशा ही हमे वहाँ ले जाती थी ! मन में कामना पूर्ति की आशा होती थी और इष्टदेव के "स्टोक" में "इन्वेस्ट" करके लाभान्वित होने की अभिलाषा रहती थी ! आरती की थाली में धन डालते समय आँख मूंद कर सम्भवतः इष्ट से सीधे ही कुछ मांगते थे या मंदिर के गोलक में गुप्त दान करते समय हमारे मन में यह लालसा बनी रहती थी कि काश मेरी यह दान दी हुई रकम दसगुनी होकर मेरे पास लौट आये ! सच पूछो तो उस समय हमारा शरीर तो मंदिर में होता था पर हमारा ध्यान श्रीमन नारायण के श्रीचरणों पर न होकर श्री नगद नारायण के चिंतन में लगा होता था ! इन सभी कर्मकांडों में हमारा मन / ध्यान भगवान की ओर न होकर केवल अपनी स्वार्थ सिद्धि की ओर होता था !

मंदिरों में और घर में आयोजित पूजा पाठ में हमारे पुरोहित ही निर्धारित कर्म कांड का पालन करते थे और हम बंदरों की तरह , उन मदारी पंडित जी के आदेशानुसार यंत्रवत वह सब क्रियाएँ करते रहते थे जो वह प्रत्येक मंत्रोचारण के बाद हमे बोल चाल की भाषा में समझाकर उसे करने का आदेश देते थे ! हमारा ध्यान भगवान की मूर्ति से कहीं अधिक उनके श्री चरणों के निकट चांदी के कटोरे में रक्खे ,नये लाल कपड़े से ढंकें गर्म गर्म देशी घी के हलुए तथा निकट ही एक बड़े लोटे में रखे पंचामृत पर रहता था !

जैसे जैसे समय बीतता गया ,लगभग ३० वर्ष की आयु में गुरुजन के संसर्ग में आने पर आँखे खुलीं ,कुछ बोध हुआ तो समझ में आया कि इन सब कर्मकांड और बाह्यआडम्बर और पारम्परिक मान्यताओं में "प्रेम भाव" का पूर्णतः अभाव है! इनका फल केवल स्वार्थ सिद्धि है 'सांसारिक सुख -सम्पदा प्राप्त करने की महत्वकांक्षा है ! प्रेम भाव के अभाव में इन विधि विधानों को अपनाने से अपने इष्ट की उपस्थिति का अहसास नहीं होता !जो भी धर्म -कर्म करो उसे प्रेम भाव से करो !प्रेम भाव में ही प्रभु का निवास है !

सच्चा धर्म है प्रीति पथ ,समझो शेष विलास !
मत मतान्तरजंगल में ,अणु है सत्य विकास !!

हो तब यह पथ सुगम जब ,हो प्रेम व्रत नेम !
बस जावे जब रंग यह , दीखे प्रेम ही प्रेम !

प्रेम भक्ति है धर्म का सार सुमर्म सुविचार
फीका है इसके बिना वाक्य जाल विस्तार

प्रिय रूप निज रूप है प्रेम रूप है ईश
सिमरन चिंतन प्रेम से है पूजन जगदीश

सद्गुरु के सान्निध्य में रहने पर ही मुझे धर्म और अध्यात्म के भाव का बोध हुआ ,मैंने उनसे जाना कि धर्म में आचार और विचार दोनों ही समाये हैं! आत्मा सम्बन्धी ज्ञान को अध्यात्मवाद कहते हैं !आत्मा को लक्ष्य रख कर जो बात की जाय , वह अध्यात्म वाद है !धर्म की उत्पत्ति अध्यात्मवाद से होती है ! मैं आत्मा हूँ ;इसलिए मेरा धर्म मेरा अपना प्रेम मय स्वरूप ही है !प्रेम ही परम धर्म है !प्रत्येक मनुष्य के मन में प्रेम का पथ अपनाने की चाह स्वाभाविक है क्योंकि प्रेम सभी प्राणियों के स्वभाव में निहित है !प्रेम के पथ में पवित्रता है! प्रेम ही जगत का आधार है !

प्रेम ही धर्म का सार है! मेरा धर्म प्रभु का प्रेम है! प्रभु प्रत्येक प्राणी में विराज मान है ;उससे प्रेम करना ही प्रभु से प्रेम करना है !राम के प्रेम में राम की भक्ति में मन को रमाने से जो शान्ति जो सुख और जो संतोष मनुष्य को प्राप्त होता है वह किसी भी कर्मकांड से प्राप्त हो ही नहीं सकता ! आत्मा की तृप्ति ,"प्रेमामृत" पान करने से होती है !प्यार ढूढने आपको दूर नहीं जाना पडेगा ,प्रभु ने अपनी श्रृष्टि के कण कण में प्यार भर रखा है -


जगत में प्यार हि प्यार भरा है,
प्यार बिना कुछ नहीं धरा है

कोयल बन में कूक सुनाये , पी के गीत पपीहा गाये
भंवरा फूलों पर मडराये , दीपक लौ पर शलभ जरा है
जगत में प्यार हि प्यार भरा है, प्यार बिना कुछ नहीं धरा है
जगत में प्यार हि प्यार भरा है

वृक्ष प्रेम से छाया कर के थके पथिक का श्रम हरते हैं
बादल सूखे पड़े खेत पर प्रेम सहित वर्षा करते हैं
जगत में प्यार हि प्यार भरा है, प्यार बिना कुछ नहीं धरा है !!
जगत में प्यार हि प्यार भरा है

पलवल करे प्रेम नदिया से , नदियाँ सागर से करती है
सागर प्रेम करे बदली से , बदली पर्वत से करती है
जगत में प्यार हि प्यार भरा है, प्यार बिना कुछ नहीं धरा है !!
जगत में प्यार हि प्यार भरा है

करले प्यार , सर्वव्यापक से, रे मन मेरे विलम न कर अब
हरघट में "प्रभु" का दर्शन कर उनपर लुटा प्यार अपना सब
मानव धर्म "प्यार" है प्यारे ,प्यार बिना सब कुछ बिगरा है !!
जगत में प्यार हि प्यार भरा है
("भोला")
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क्रमशः
निवेदक : व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"
सहयोग: श्रीमती कृष्ण "भोला" श्रीवास्तव
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मंगलवार, 15 नवंबर 2011

शरणागति

शरणागतवत्सल हैं राम

बचपन से सत्संगों मैं एक भजन सुनता आया हूँ:
मेरे राम
"सुनते हैं तेरी रहमत दिन रात बरसती है"
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उपरोक्त कथन अक्षरशः सत्य है ! "प्रभु कृपा" की ,"उनके" रहमत की अमृत वर्षा ,सृष्टि के कणकण पर ,कायनात के ज़र्रे जर्रे पर ,समग्र चराचर जगत पर सतत होती है और इसका अनुभव भी सबको होता है ,लेकिन अधिकतर स्वार्थी जीव ,सांसारिकता के ताप से प्रभुकृपा की उन "अमृत बूंदों" के सूखते ही ,उस वृष्टि को भूल जाते हैं और साथ साथ अपने उस उदार "प्रभु" को भी भुला देते है जिसने अति करुणा कर भूकम्पों , तूफ़ानों तथा सुनामी जैसी बड़ी बड़ी प्राकृतिक आपदाओं में उन जीवों के जान-माल की रक्षा की है !

परन्तु सच्चा "शरणागत" जीव" आजीवन न तो अपने प्यारे प्रभु को भूलता है और न उसके द्वारा किये हुए उपकारों को ही ! जीवन के हर क्षण में वह अपने सिर पर "प्यारे प्रभु" के वरद हाथों के सुखद स्पर्श का अनुभव करता है और अपने "इष्ट" के प्रति उसकी प्रीति दिन पर दिन गहरी होती जाती है !

सद्ग्रंथों से हमने जाना कि परमात्मा की अपरम्पार कृपा का जितना अनुभव द्वापर युग में ब्रजवासियों ने किया वैसा शायद ही किसी अन्य ने कभी किया हो ! बाल्यकाल में ही गोकुल पर पड़े भयंकर संकटों में श्रीकृष्ण ने सभी बृजबासियों की जीवन रक्षा की ! तृणावर्त के कोप से उठे बवंडर से, "देवेश इंद्र" के क्रोध के कारण उठे "जल प्रलय" - सात दिवसीय मूसलाधार वर्षा से और दावानल ,वज्रपात और ओलों की बौछार जैसी आपदाओं से बालक कृष्ण ने सब बृजवासिओं तथा गौधन की रक्षा की !

द्वापर में ,श्री कृष्ण से निःस्वार्थ स्नेह करने वाले ,तन मन धन से कृष्ण को समर्पित तथा उनके पूर्णतः शरणागत हुए ब्रजवासियों ने कृष्ण की अहेतुकी कृपा का मधुर अनुभव किया तथा कुरूप "कुब्जा" को अपने चरणों के स्पर्श मात्र से अतिसुंदर बना दिया ! वैसे ही त्रेतायुग के अवतार "श्रीराम" ने शिलारूपणी सती अहिल्या का तथा भीलनी शबरी का उद्धार किया !

त्रेता या द्वापर युग में ही नहीं ,आज कलियुग में भी प्रभु अपना वह "यदा यदा धर्मस्य---" वाला वादा ईमानदारी से निभा रहे हैं ! आज भी "वह" हम जीवधारिओं को भयंकर विपदाओं में सुरक्षित रखके तथा कुछेक को ऐसी दुर्घटनाओं के द्वारा ही मुक्ति प्रदान करके मानवता पर कृपा कर रहे हैं ! हमे ऐसी घटनाओं से ही ,प्रभु के प्रभुत्व का दर्शन होता है !

प्रज्ञाचक्षु स्वामी शरणानंद जी कहते थे "'प्रत्येक घटना में प्यारे प्रभु की कृपा का दर्शन करो !सब प्रकार से उन्हीं के हो कर रहो ! उनकी मधुर स्मृति को ही अपना जीवन समझो ! जिन्होंने सरल विश्वास पूर्वक प्यारे प्रभु की कृपा का आश्रय लिया वे सभी पार हो गए ,यह निर्विवाद सत्य है '! जिस व्यक्ति को अपने "इष्ट" "सद्गुरु" अथवा किसी संत महात्मा पर अगाध श्रद्धा हो , उन पर अटूट विश्वास हो और उनसे गहन प्रीति करता हो तथा उसे एकमात्र अपने "उन्ही" इष्ट का आश्रय हो तो वह् निश्चय ही अपने इष्ट का कृपा पात्र बन जाता है और अपने इष्ट की छत्र छाया में वह सांसारिक आपदाओं के भय से मुक्त हो जाता है ! उसके जीवन का एक एक क्षण सुखद और शांतिमय हो जाता है ! महापुरुषों का कथन है कि इस कलिकाल में जीवों को पूरी श्रद्धा और विश्वास के साथ अपने अपने "इष्ट" के साथ गहन निस्वार्थ "प्रेम" करना चाहिए जिसके फलस्वरूप वह "प्यारे प्रभु" की मंगलमय अहेतुकी कृपाप्राप्ति के अधिकारी बन जायें !

प्रियजन हमारा प्यारा इष्ट कभी भी अपने शरणागत का किसी प्रकार का अनिष्ट होने नहीं देता ! भगवान राम के परम स्नेही भक्त गोसाईं तुलसीदास ने निज अनुभव के आधार पर ही कहा है :

तुलसी सीता राम को दृढ़ राखे विश्वास
कबहुक बिगरत ना सुने रामचन्द्र के दास
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उस बर्फीली तूफानी रात ,करुनानिधान "प्रभु" ने हमारे परिवार की रक्षा की !
"प्रभु" की कृपा अनंत है ;"उनकी" लीला अपरम्पार है ;
"उनके" अनत उपकारों का मूल्य हम किसी प्रकार चुका नहीं सकते
अब तो मैं अपने "प्यारे प्रभु" से वैसी ही प्रीति करते रहना चाहता हूँ
जैसी "स्वामी विवेकानंद" बनने से पहले "नरेंद्र" अपने इष्ट देव से करते थे,
नरेन्द्र भाव विभोर हो ठाकुर के मंदिर में बंगला भाषा में कुछ इस भाव के गीत गाते थे:

तुझसे हमने दिल है लगाया ,जो कुछ है सो तू ही है
हर दिल में तू ही है समाया ,जो कुछ है सो तू ही है


तू धरती है तू ही अम्बर , तू परबत है तू ही सागर
कठपुतले हम तू नटनागर , जड़ चेतन सब को ही नचाया
तुमसे हमने दिल है लगाया

साँस साँस में आता जाता ,हर धड़कन में याद दिलाता
तू ही सबका जीवन दाता , रोम रोम में तू ही समाया
तुमसे हमने दिल है लगाया

बजा रहा है मधुर मुरलिया , मन ब्रिंदाबन में सांवरिया
हमको बना गया बावरिया , स्वर में ईश्वर दरस कराया
तुमसे हमने दिल है लगाया

(शब्दकार - स्वरकार - गायक:-- "भोला")
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निवेदक : व्ही . एन. श्रीवास्तव "भोला"
सहयोग : श्रीमती कृष्णा भोला
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शुक्रवार, 11 नवंबर 2011

शरणागति

शरणागत वत्सल हैं 'राम'
'उनकी' चरनशरन में रख दे जो निज जीवन प्रान
निश्चय हो जायेगा उसका सर्वांगी उत्त्थान
शरणागत वत्सल हैं 'राम'
"श्री राम जय राम जय जय राम"
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[ प्रियजन , अपने ८२ वर्ष के निजी अनुभव के आधार पर ,दावे के साथ कहता हूँ ,
मेरी बात मान कर ,एक बार आप "उनकी"
चरन शरन में तन मन जीवन अर्पण कर के देखो तो-
"होगा निश्चय ही कल्याण"
"बोलो राम बोलो राम बोलो राम राम राम"
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(गतांक के आगे)

उस बर्फीली तूफानी शाम , दीपावली उत्सव के आमोद - प्रमोद का आनंद ले कर सब मेहमान अंधकारमयी रात्रि के आगमन से पूर्व ही सुरक्षित अपने अपने घर पहुंच गए ,यह प्रभु की अपार कृपा रही ! उनके जाने के बाद अपने परिवार वाले ही घर में बचे थे ! मीनाक्षी बेटी को उस रात अनीश,आनंद और रानीबेटी " श्रीदेवी कुमार" की पुत्री रक्षा के साथ वहाँ रुकना ही पड़ा क्यूंकि उस भयंकर रात में "एण्डओवर से प्रोविडेंस" तक की यात्रा करना असम्भव था !

आमतौर पर अमेरिका में पार्टी के बाद भारतीय मेहमान भी मेजबान के साथ मिल कर पार्टी के सारे जूठे बर्तन "डिश वाशर" में डलवाकर कर और रसोई की साफ़ -सफाई करवा कर ही अपने अपने घर जाते हैं मगर उस रात ऐसा सम्भव न था ! मौसम ने जबरदस्ती ही पार्टी का समापन समय से पूर्व करवा दिया था ! बहुत चाह कर भी मेहमान मेज़बान की कोई मदद नहीं कर सके और राघवजी और शिल्पीबेटी को बिस्तर में लेटे लेटे, उस शाम के मनोरंजक कार्यक्रम की स्मृति के साथ साथ घर की डाइनिंग टेबलों पर और किचन के सिंक के आस- पास बिखरे पड़े घर के जूठे बर्तनों की भी याद आने लगी !

बेचारे बर्तन बेताबी से टेबिलों के बर्फीले सतह् से उतर कर गर्म "शोवर" का आनंद लूटने के लिए "डिश वाशर" में प्रवेश पाने को बेकरार थे ! उधर शिल्पी को चिंता थी कि न जाने कब बिजली आयेगी , न जाने कब 'बोइलर' चालू हो पायेगा और वह अपने घर की उस अस्त वयस्त व्यवस्था को सुधार पाएगी ! इस चिंता से हमारी दक्षतापरक बेटी शिल्पी के रगों में हिम-नद जैसी शीतलता प्रवाहित हो रही थी ; एक विचित्र सिहरन ,एक भयंकर कंपन उसके सारे शरीर को झकझोर रही थी !

मीना को अपने रिसर्च का कुछ काम पूरा करना था सो वह स्लीपिंग बेग में कम्बलों के तहों में घुस कर , देर तक , अपने 'लेपटोप' के बचे खुचे चार्ज का सदोपयोग करती रहीं ! रानी बेटी रक्षा को अगले सोमवार के प्रातः ही स्कूल में अपने विद्यार्थियों को पढाने के लिए कुछ खास तैयारी करनी थी सो वह भी रात में काफी देर तक ,मोमबती के प्रकाश में .,अपने लेपटोप पर अपना काम निपटाती रही !

बीच बीच में घर की छत पर और चारों ओर वृक्षों के टूटने और गिरने के धमाके की आवाज, ,आकाश से बर्फ के गोले बरसाते बादलों की भयंकर गडगड़ाहट , बिजली की चमक और खड़खड़ाहट से सबके रोंगटे खडे हो गए और तब अपनी अपनी श्रद्धा के अनुरूप सभी ने प्रभु को याद किया किसी ने "विष्णु सहस्त्रनाम" का पाठ किया और किसी किसी ने मन ही मन एनडोवर के " चिन्मय मारुती मंदिर" के हनुमान जी का आवाहन करके उनसे प्रार्थना की कि "हे बिक्रम बजरंगी महाबीरजी ,जन जन की पीड़ा हरिये , दया करिये , कृपा करिये ! हमे याद आ रहा है कि कुछ दिनों पूर्व हमने इसी घर में राघव के मेहमानों के साथ मिल कर अपना निम्नांकित पद गाया था ! आज जब, संकटमोचन ने उस भयंकर स्थिति में हमारे परिवार की रक्षा की है हम एक बार फिर आपके साथ वह पद गाना चाहते हैं ! आज भजन हो जाये ! हम बाकी कहानी ,किशतों में धीरे धीरे सुनाते रहेंगे

जय जय बजरंगी महाबीर , तुम बिन को जन की हरे पीर

अतुलित बलशाली तव काया, गति पिता पवन का अपनाया
शंकर से दैवी गुण पाया ,शिव पवन पूत हे धीर वीर
जय जय बजरंगी महाबीर

दुःख भंजन सब दुःख हरते हो, आरत की सेवा करते हो,
पल भर विलम्ब ना करते हो , जब भी भगतों पर पड़े भीर,
जय जय बजरंगी महाबीर
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जब जामवंत से ज्ञान दिया, झट सिय खोजन स्वीकार किया,
शत योजन सागर पार किया ,रघुबर को जब देखा अधीर ,
जय जय बजरंगी महाबीर
++++++++++++++
क्रमशः
निवेदक: व्ही . एन . श्रीवास्तव "भोला"
सहयोग: श्रीमती कृष्णा "भोला" श्रीवास्तव
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बुधवार, 9 नवंबर 2011

शरणागति

"शरणागतवत्सल श्रीराम"
"हर संकट में रक्षा करते ,'शरण पड़े ' की कृपानिधान"
जय श्री राम जय श्री राम

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घर की खपरैली छत पर गिरा पुराने 'मेपल' वृक्ष का एक भारी तना !

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राघवजी की नयी "लेक्सस" कार पर पड़ी एक पुराने ओक वृक्ष की भारी शाखा

(घर के चारों ओर बिखरे इन भारी भारी ओक ,पाइन, मेपल वृक्षों के

तनों को हटाने के लिए मशीनों की मदद लेनी पडी )


शरणागतवत्सल श्री राम
(गतांक से आगे)

"शरणागत" का "समय" फेर "प्रभु", बेगि सम्हालें ,उसके काम ,
"कुसमय" उसका बने "समय शुभ",एक बार जो सिमरे "नाम"!!

जो जन करम करे धीरजधर,बुधि-बिबेक की अंगुली थाम ,
संकट टाल तुरत उस जन को , देते "राम" परम विश्राम !!

"भोला"

समय के उस उग्र रूप को क्या नाम दूँ , जिसे आज यहाँ 'यू.एस.ए' में "स्नो एण्ड आइस स्टोर्म [बर्फीले तूफान] और हरीकेन के रूप में तथा संसार के अन्य देशों में , भूकंपों और नदियों तथा सागर में उठे भयंकर जलप्रलय के दुखदायी स्वरूप में हमारे इस भूमंडल की मानवता झेल रही हैं !

क्या कह कर संबोधित करें हम ऐसे दुखदाई लगने वाले समय को ? कुसमय , असमय ,राहु कालम , साढ़ेसाती, मारकेश या कुछ और ?

प्रियजन, ज्ञानी महापुरुष ऐसे समय को "कुसमय" न कह कर कभी "परीक्षा की घड़ी " और कभी "शिक्षा की बेला"" कहते है ! गुरुजनों का कहना है कि,परमपिता हमारे जीवन के एक एक पल में हम सब को हमारे समग्र "उत्थान का सुअवसर प्रदान करते रहते हैं ! "प्रभु" का दिया हुआ ऐसा सुअवसर साधकों को सदा "शुभसमय" में ही मिलेगा ! अस्तु ,हम जीवन के किसी क्षण को भी " बुरा - समय " अथवा "कुसमय" न समझ कर हर एक पल का आनंद उठायें !

गोस्वामी तुलसीदास ने दोहावली के निम्नांकित दोहे में इस प्रकार की स्थिति की एक अति भावपूर्ण विवेचना की है ! उन्होंने कहा है कि यदि कोई मनुष्य जीवन में आये "अशुभ समय" में भी, धीरज के साथ स्वधर्म निभाते हुए, विवेक व साहस सहित ,उपलब्ध ज्ञान व कलाओं का उपयोग तथा सत्य का पालन करते हुए , अपने इष्ट (या प्रभु) के आश्रित रहे तो उसे ऐसी आपदाओं से निपटने की शक्ति भगवद कृपा से प्राप्त हो जाती है !

तुलसी "असमय" के सखा धीरज धरम बिबेक!
साहस साहित सत्यव्रत "राम" भरोसो एक !!

तुलसीदास का संदेश है कि " 'राम' पर अविचल भरोसा रखो ; धीरज, धर्म ,विवेक ,साहस , ज्ञान तथा सत्यव्रत के साथ अपने कर्तव्यकर्म करते रहो ! इससे तुम्हारा मानसिक संतुलन व आत्मबल बना रहेगा और तुम 'कुसमय' को भी 'सुसमय" में परिवर्तित कर सकोगे ; तुम प्रसन्नता पूर्वंक समस्याओं से जूझने की शक्ति , मनोबल तथा साहस पा जाओगे और भयंकर से भयंकर 'असमय' में भी तुम्हारा कल्याण ही होगा !"


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बर्फ और पेड़ों की शाखाओं से बंद पड़ा घर का ड्राइव वे


जाने अनजाने ,नजाने कैसे ,शायद किसी दिव्य अंतर प्रेरणा से ,उस बर्फीली रात हमारे बच्चों('राघवजी-शिल्पी बेटी' तथा 'उलरिक-मीनाक्षी बेटी और रक्षा गुडिया ) ने संकट की उस घड़ी में एक क्षण के लिए भी अपना धैर्य नहीं खोया ! और उल्लेखनीय है कि इस बीच
बच्चों ने प्राप्त जानकारियों तथा वस्तुस्थिति के वास्तविक 'ज्ञान' के आधार पर ,
अपने बुद्धि - विवेक का समुचित उपयोग किया तथा निर्णय लेते समय ,
एक पल के लिए भी अपने "इष्टदेव" को नहीं भुलाया !

उन्होंने उस रात "कम्प्लीट पॉवर ब्रेकडाउन " के माहौल में गहन अंधकार में डूबे घर के अंदर ,तीव्रता से उतरते तापमान को झेलते हुए घर में ही रुकना उचित जाना !

बच्चों के बिस्तर गर्म रखने के लिए बोयलर के बचे खुचे गर्म पानी से "होट वाटर बैग" भरे गए ! बच्चे तो सो गए लेकिन बड़ों की आँखों में नींद कहाँ ? एक तो बर्फ सा ठंढा बिस्तर और दूसरे आँख मूंदते ही शाम की पार्टी के दृश्य - दिवाली के पटाखे, फुलझडियों की चिट्चिटाहट, दोस्तों के चुटकुले , सब का मिल कर बोलीवुड के गानों पर आधारित "अन्ताक्षरी" खेलना और अंत में उस रात के मौसम की जोर जबरदस्ती की वजह से "शोर्ट नोटिस" में सजाई "केंडिल लाइट डेजर्ट पार्टी " की टेबल के चारों तरफ बैठी मित्र मंडली ! एक एक कर के ये सभी नजारे किसी रंगीन चलचित्र के समान उनकी बंद आँखों में उतराते रहे !और हवाओं की 'सांय सांय' बादलों की गरज , सड़क और घर के चारों ओर भारी भारी पेड़ों के तनों के चरमराकर टूटने और धमाके के साथ घर की छत पर गिरने की भयंकर आवाजें , किसे सोने देती हैं ?

आंतरिक प्रेरणा से लिया उनका घर में रुकने का निर्णय कितना उचित था ;उसका आंकलन अगली सुबह होना है ! उस रात क्या क्या हुआ और कैसे किसी अदृश्य शक्ति के बलशाली हाथों ने राम परिवार के इन बच्चों की रक्षा की , एक लम्बी कहानी है ! प्रियजन ,सच पूछो तो न जाने कब शुरू हुई , राम कृपा की इस कथा का कोई अंत नहीं है !

हम सब ने पारिवारिक प्रार्थनाओं में एक साथ मिल कर "अमृतवाणी" का पाठ किया है !

मांगूं मैं राम कृपा दिन रात , राम कृपा हरे सब उत्पात !
राम कृपा लेवे अंत सम्हाल , राम प्रभू है जन प्रतिपाल!

मेरे अतिशय प्रिय पाठकगण आपही कहो
वह परमकृपालु - बिना मांगे देने वाला,
शरणागतवत्सल श्रीराम
क्या कभी किसी शरणागत को अपने द्वार से खाली हाथ लौटायेगा ?

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क्रमशः
श्रीराम कृपा और आप सब की शुभ कामनाओं से धीरे धीरे स्वस्थ हो रहा हूँ !
विशेषकर आँखों की कमजोरी के कारण अभी अधिक लिखना पढ़ना नहीं हो पा रहा है !
शायद यही "रामेच्छा" है !
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निवेदक: व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"
सहयोग : श्रीमती कृष्णा भोला श्रीवास्तव
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रविवार, 6 नवंबर 2011

शरणागति

शरणागत वत्सल परमेश्वर
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"ईश्वर" है तो एक ही परन्तु उसके अनेकों रूप हैं , उसकी अनंत विभूतियाँ हैं !
एक ही फिल्मी कलाकार जैसे भिन्न फिल्मों में अलग अलग नामों से ,भिन्न भिन्न वस्त्राभूष्ण पह्न कर , भिन्न मेकप-मेकओवर करके ,भिन्न भिन्न किरदार निभाता है
उसी प्रकार "ईश्वर" नामक सत्ता के भी अनेक स्वरूप हैं ,अनेक नाम हैं !
ब्रह्म , परमात्मा, राम , कृष्ण , शिव ,शक्ति ,गोड ,खुदा अल्लाह
या ऐसे ही अन्य कितने ही नाम , जिस एक सत्ता के हैं ,
वह "ईश्वर" है
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"ईश्वर" "परमात्मा" "खुदा" "गोड" कहो या "राम"
शरणागत उसके रहो जो चाहो कल्याण

दिखलाएगा "प्रभु" तुम्हे अंधियारे में राह
बिन मांगे दे जायगा जो पाने की चाह

(भोला)
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प्रियजन ,सर्वशक्तिमान ईश्वर को पूरी तरह ठीक ठीक से न तो जाना जा सकता है ,न उसके वास्तविक स्वरूप को देखा ही जा सकता है ! लेकिन इस कारण यह नहीं समझ लेना चाहिए कि "ईश्वर" है ही नहीं ! हमे हवा भी तो नहीं दिखती ,लेकिन हम् सब उसे जानते और मानते हैं ! वैसे ही "ईश्वर"भी है लेकिन वह हमारी आँखों से हमे दिखायी नहीं देता है !

हम् सांसारिक पदार्थों को देखते ही यह मान लेते हैं कि उनको बनाने वाला कोई व्यक्ति तो अवश्य है हालाँकि अधिकतर हमे इन पदार्थों के साथ उनके निर्माता नज़र नहीं आते हैं ! वैसे ही हमारी इस सुंदर सृष्टि का निर्माता भी कोई "अति चतुर शिल्पी" है जिसकी लुभावनी कृति हमे आजीवन दिखती रहती है लेकिन हम् उस 'कुशल सृष्टि निर्माता' को अपने इन "नेत्रों" से देख नहीं पाते हैं ! इस संसार का निर्माता, "ईश्वर" , अपनी इस विशाल कृति (समग्र सृष्टि) को सुचारू रूप से नियमपूर्वक चला भी रहा है ! जरा सोंच कर देखें कि इस संसार में पल पल कितनी ऐसी चमत्कारिक घटनाएँ होती रहती हैं ,जिनके होने का कारण किसी की समझ में नहीं आता ! बड़े बड़े ज्ञानी भी इन चमत्कारों के घटने का वैज्ञानिक रहस्य समझ नहीं पाते ! ऐसे चमत्कारों में ही हमे उस निराकार चिन्मय अविनाशी सर्वशक्तिमान ईश्वर की सत्ता के दर्शन होते हैं तथा उसके सामिप्य एवं निकटता का आभास होता है !

"ईश्वर की सत्ता" ,यदि जीवधारियों को ऐसे समझ में न आये तो वह सत्ताधारी "परमात्मा " , सर्वशक्तिमान ईश्वर स्वयम ही हमे , कभी ठोकर लगा कर ,कभी झटका देकर , कभी प्यार और दुलार से अपनी विशालता ,अपनी महानता अपनी कृपालुता से परिचित करा देते हैं ! सोच रहा हू आपको इस संदर्भ की एक कथा सुनादूं , ----लीजिए सुनिए :

अभी कुछ दिन पूर्व यहाँ उत्तरी अमेरिका के इस राज्य में जहां हम् रहते हैं , बर्फ का एक भयंकर तूफ़ान आया ! तेज हवाओं के साथ भुरभूरे बर्फ के गोले आकाश से गिरे जिनकी चोट से यहाँ के सैकड़ों वर्ष पुराने बड़े बड़े पेड़ समूल उखड गए ,उनकी मजबूत भारी भारी शाखाएं उड़ कर ,मकानों , सवारी गाड़ियों ,बसों मोटर कारों पर और बिजली के खम्भों पर जा गिरीं !पूरे के पूरे नगर "बिजली विहीन" हो गए ! कुछ स्थानों में तो तीन चार दिनों तक बिजली नहीं आयी !हजारों नागरिको को घर छोडना पड़ा !इन बर्फीली रातों में बिना रोशनी ,बिना 'हीटिंग' के कहीं भी रह पाना असम्भव है ! ऐसे में बर्फीली सर्दी से जीवनरक्षा हेतु काफी नगरवासियों को सरकारी शेल्टर्स में रहना पड़ा और अनेक पास के नगरों के मोटलों, होटलों ,और दोस्तों रिश्तेदारों के घर चले गए !

उस शाम जब वह बर्फीला तूफ़ान आया हमारे पुत्र के घर दिवाली की पार्टी चल रही थी !उसके 'ड्राइववे' में आठ दस कारें खड़ी थीं !तूफान के आसार नज़र आते ही दूर के मेहमान लौट गए! निकट के दो चार बचे थे ! इस बीच तूफ़ान ने जोर पकड़ लिया ! तूफानी हवाएं रुख बदल बदल कर उस एक मंजिली इमारत (रेंच हाउस) पर चारों दिशाओं से आक्रमण करने लगीं ! मकान के चारों ओर ऊंचे ऊंचे पेड़ थे जिन्होंने शताब्दियों के अपने जीवन काल में सैकड़ों ऐसे तूफान झेले थे लेकिन उस रात का तूफान उनके सहन शक्ति के परे था ! चटक चटक कर उनकी शाखाएं टूट कर इधर उधर उडी जा रहीं थीं !

मोमबत्तियां उन तेज हवाओं को कब तक झेलतीं और कब तक घने अंधकार को मिटा पातीं ? मोटी, छोटी खुशबूदार ,मोमबत्तियाँ तो यहाँ हर घर में मिल जाती हैं पर वो सब ही एक एक कर बुझ चुकी थीं ! सारा घर घने अँधेरे में डूबा पड़ा था ! बिजली से चलने वाला सेंट्रल हीटिंग का बोयल्रर भी बंद हो गया था !,धीरे धीरे सारा घर ठंढा हो रहा था ! बाहर का तापमान शून्य अंश सेल्सियस से नीचे उतर चुका था ! तूफानी हवा के झोंकों में भूकम्प के समान डोलता घर अब धीरे धीरे ठंढा हो रहा था ! किसी का भी अब वहाँ अधिक समय तक रुक पाना खतरे से खाली नहीं था !

मोबाईल और लेंड लाईन, सभी फोन बंद पड़े थे ! किसी होटल या किसी दोस्त या रिश्तेदार से बात ही नहीं हो पायी ! ऐसे में ,उतनी रात में कहीं और जाने का सवाल ही नहीं था ! किसी तरह घर के सभी स्लीपिंग बेग्स , ब्लेंकेट और लिहाफ इकट्ठा कर के रात गुजारने के अलावा कोई और चारा नहीं था !

रात भर हवाएं सायं सायं करके चलती रहीं ,पेड़ों की शाखायें टूट टूट कर ड्राइव वे पर गिरती रहीं ! बीच बीच में छत पर जोर के धमाके होते रहे ! ऐसा लगता था जैसे पेड़ों की भारी भारी शाखाएं टूट कर छत पर गिर रही हैं ! कहाँ और घर के किस हिस्से पर या ड्राइव वे में किस "कार" पर ,"प्रायस" पर या नयी वाली टोयोटा "लेक्सस" पर , या व्हीलचेयर एक्सस वाली बड़ी वेंन पर ; किसी को बाहर निकल कर यह देखने का साहस भी न था !

क्रमशः
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निवेदक: व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"
सहयोग: श्रीमती कृष्णा भोला श्रीवास्तव
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