बुधवार, 24 अक्तूबर 2012

सद्गुरु कृपा

"माँ " हमारी प्रथम सद्गुरु 

महापुरुषों से सुना एक चिरंतन सत्य है -"इस धरती पर जन्मा कोई भी जीव अपनी "माँ" के होते हुए कभी भी 'निगुरा' अर्थात- 'गुरू विहीन' नहीं है "!  जीव' को उसका यह प्रथम गुरू उसके जन्म से पूर्व ही मिल जाता है और उसकी यह जननी "माँ" , आजीवन उसकी "गुरू" बनी उसका मार्ग दर्शन करती है ! वही उसकी प्रथम सद्गुरु है ! 

अपनी 'माँ' का , बल- बुद्धि- ज्ञानप्रदायक अमृततुल्य "पय"पान कर "जीव" शनै शनै विकसित होकर सम्पूर्ण मानव बन जाता है !  

उपदेशक एवं "आध्यात्मिक सद्गुरु"  अथवा "दीक्षा गुरू "   

जीवनयात्रा में  जीव के पथ पर सदैव उसके साथ चलते हैं उसके "उपदेशक गुरू" तथा उसके आध्यात्मिक सद्गुरु ("दीक्षा गुरु") ! प्यारे प्रभु की विशेष अनुकम्पा प्राप्त मानव अपने इन गुरुजन की शिक्षा-दीक्षा तथा आशीर्वाद एवं उनके  अनुग्रह से सिंचित हो कर आजीवन फूलता फलता रहता है

उपदेशक- गुरू 

'सद्गुरु'  के अतिरिक्त मनुष्य के साथ सतत बने रहने वाला गुरू है "उपदेशक गुरू"! 

मनुष्य का निर्मल आत्मा  ही  उसका उपदेशक गुरू है ! यह शुद्ध आत्मा अपने हित -अहित का निर्णय स्वयम करने में पूर्ण समर्थ है !  लेकिन ऐसा देखा ग्या है कि अशांत व विक्षिप्त बुद्धि वाले शिष्य अपने अंत:करण के इन सूक्ष्म आदेशों को सुनने और समझने में असमर्थ रहते हैं ! 

श्रीमदभागवत पुराण के एकादश स्कंध [अध्याय ७ श्लोक २० में] योगेश्वर श्री कृष्ण ने उद्धव को उपदेश देते हुए  कहा है कि मनुष्य का आत्मा  ही  उसके हित और अहित  को दर्शाने वाला "उपदेशक गुरू" है ,जो सद्गुरु के समान  पल भर को भी अपने शिष्य का साथ नहीं छोड़ता !

सद्गुरु श्री विश्वामित्र महाराज ने अपने प्रवचन में इस सूत्र की ओर संकेत करते हुए कहा   कि जीवन काल में जीव का वास्तविक आध्यात्मिक दीक्षा -गुरू केवल एक ही होता है !  दीक्षा एक रहस्यमयी प्रक्रिया है जिसे केवल वास्तविक समर्थ गुरू ही कार्यान्वित कर पाते हैं  ! ऐसे  ही सक्षम सद्गुरु  शिष्यों को दीक्षित करने के अधिकारी हैं ! अपने  बाबा गुरू श्री स्वामी सत्यानन्द जी महाराज पूर्णतः सक्षम थे !

सद्गुरु एक कवच के समान अपने शिष्य के शरीर को हर तरफ से ढंक कर उसकी रक्षा करता रहता है ! वह योगेश्वर कृष्ण के समान जीवन रण में अर्जुन जैसे अपने शिष्य को उचित निर्देश भी देता रहता है ! 

वास्तविक समर्थगुरू अपने शिष्य को पल भर के लिए भी अकेला नहीं छोड़ता ! जहाँ वह सशरीर पहुंच कर  शिष्य का कष्ट निवारण नहीं कर पाता वह वहाँ सूक्ष्म रूप में पहुंच कर "प्रेरणा" बनकर ,शिष्य की शंकाओं का समाधान कर देता है ! 

कभी कभी आध्यात्मिक सद्गुरु अपने  शिष्य का साक्षात्कार अन्य सक्षम गुरुजनों से करा कर उसे चिंता मुक्त कर देता  है  !   इस प्रकार सदाचारी जीवन जीने के लिए 'जीव' को अन्य सक्षम गुरूओं से शिक्षा ग्रहण करने की व्यवस्था सद्गुरु स्वयं कर देता है !  उसे छूट है अन्य शिक्षा गुरुओं से उपदेश प्राप्त कर  आध्यात्मिक प्रगति करने की !  

चलिए अपनी निजी अनुभूतियों की ही बात आगे बढाएं !  हाँ तो  जन्मदात्री "माँ" मेरी भी प्रथम गुरू थीं ! उन्होंने बचपन में ही मेरे मन में "प्रेम भक्ति" का बीज आरोपित कर दिया  था ! उसके बाद जीवन में अनेक शिक्षा गुरू और उपदेश गुरू मिले जिन्होंने मेरी लौकिक-यात्रा पर प्रगति करने का सम्बल दिया !  इस बीच नवम्बर १९५९ में तीस वर्ष की अवस्था में मुझे उच्च कोटि के महान  समर्थ सदगुरु  प्रातः  स्मरणीय श्री स्वामी सत्यानन्द जी महाराज से दीक्षित होने का सौभाग्य मिला ! आइये ---

  गुरू को करिए वन्दना भाव से बारम्बार 
नाम सुनौका से किया जिसने भाव से पार  

 अनुभूतियों की आत्म कथा फिर भी अधूरी रह गयी , क्रमशः अगले अंकों में पूरी करूँगा 
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 सब पाठकों को "विजय दशमी" की हार्दिक शुभकामनायें 
   
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 निवेदक : व्ही. एन . श्रीवास्तव "भोला"
सहयोग : श्रीमती डॉक्टर कृष्णा भोला श्रीवास्तव 
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2 टिप्‍पणियां:

travel ufo ने कहा…

बढिया रचना

Shalini kaushik ने कहा…

maa के bare में aapne जो bhi kaha है ek ek shabd sahi है .hamne bhi bhagwan की kripa se aisee maa payi जो hamari jeevan में guru rahi bhagwan kare jaisee maa hame mil har bachche को mile .बहुत सुन्दर प्रस्तुति