शनिवार, 20 अप्रैल 2013

बिनु सत्संग - ( भाग २ ) 'रामनवमी पर रामायनी सत्संग'


श्रीराम जन्मदिवस
( राम नवमी )
पर हमारी हार्दिक शुभ कामनाएं 
स्वीकारें  
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" बिनु सत्संग विवेक न होई "
 (गतांक से आगे)
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गृहस्थ संत - शिवदयाल जी , हमारे "बाबू"  को जन्म से ही सत्संग लाभ मिला ! माताश्री ने मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम के दिव्य चरित्र से परिचित करवाया , दीक्षा गुरु ने ईश्वर के "एक ओम्कारीय" सत्य स्वरूप का दर्शन कराया , सद्गुर स्वामी सत्यानन्द जी महाराज ने माताश्री के ईश्वर -"राम" का ,दीक्षा गुरु के 'ओमकार' के साथ एकीकरण करके कहा :

सर्वाधार ओंकार  जो , निराकार बिन पार !
उसे राम , श्रीराम  कह  ,नमूं सदा बहुबार !! 

माताश्री , दीक्षागुरु एवं स्वामीजी के सम्मिलित प्रभाव ने बाबू के आध्यात्मिक चिंतन की अस्पष्टता को दूर कर दिया ! वे साकार-निराकार के द्वंद से पूर्णतः मुक्त हो गये ! स्वामी  विवेकानंद की वेदान्ती दार्शनिकता मिश्रित साकार 'मातृ - भक्ति' के समान ही बाबू ने भी अपने  इष्ट मर्यादापुरुषोत्तम श्री राम के स्वरूप में निराकार पारब्रहम के दर्शन किये , उनपर दृढ़ आस्था रखी , विधि विधान से आजीवन अपनी साधना करते रहे तथा सम्पर्क में आये साधारण से साधारण व्यक्ति में भी उस  'निराकार ब्रह्म' को उपस्थिति मान कर परहित और परसेवा करते रहे !

एक पारस्परिक सम्वाद में संत समागम के विषय में हम सब से वार्तालाप करते हुए बाबू ने सत्संग का महात्म्य बताते हुए कहा था :

धन्य  हैं वे जिज्ञासु शिष्य जिन्होंने आत्मोन्नति हेतु 'संत समागम" किया , गुरुजन को अपनी शंकाओं से अवगत कराया तथा उनसे उनका समाधान प्राप्त किया !  कोटिश प्रणाम उन दिव्य गुरुजन को भी , जिन्होंने अपने भ्रमित शिष्यों को आध्यात्मिक चिंताओं से मुक्त किया ,उन्हें "परमसत्य"  से परिचित करवाया तथा उन्हें माध्यम बना समस्त विश्व के हम जैसे करोड़ों साधकों को सत्य की अनुभूति कराई !

वेदव्यास रचित एवं योगेश्वर श्रीकृष्ण के द्वारा मुखरित "श्री मद् भगवद गीता" में सभी मानवीय शंकाओं के समाधान उपलब्ध हैं ! व्यथित अर्जुन ने यदि अपने सारथी श्रीकृष्ण के साथ कुरुक्षेत्र की युद्ध भूमि पर वह सत्संग न किया होता तो समग्र मानवता ,सदा सदा के लिए "गीता" के इस दिव्य सन्देश  तथा उसके गायन के सुमधुर स्वरों के श्रवण  से वंचित रह जाती  !

तुलसी कृत राम चरित मानस में तो ऐसे अनेक प्रसंग समाहित हैं जिनमे जिज्ञासु पात्रों ने निज शंकाओं के समाधान हेतु अपने गुरुजन से प्रश्न किये हैं ! उनमे से एक प्रसंग जो मुझे अभी याद आ रहा हैं ,वह  है श्री राम और ऋषि बाल्मीकि जी के बीच ,चित्रकूट का वह सम्वाद जिसमें , बनवास के दिनों में रामजी ने अपने गुरुदेव से यह जानना चाहा कि विन्ध्य के उस सघन वन्य प्रदेश में निवास हेतु वह किस स्थान पर अपनी कुटी बनायें !

इस साधारण से प्रतीत होते प्रश्न के उत्तर में ऋर्षि  बाल्मीकि ने जो कहा उसमे हमारे आध्यात्म का सार समाहित है ! उत्तर में अति आश्चर्य जताते हुए ऋषि ने  कहा " राम आप मुझसे पूछ रहे हो कि आप कहाँ निवास करो ? उलटे मैं अति संकोच से आपसे पूछ रहा हूँ कि आप मुझे बताएं कि इस समस्त सृष्टि में वह कौन सा स्थान है जहां आप  विद्यमान नहीं हैं ? "

इस प्रकार सद्गुरु ने उनके सन्मुख खड़े मानव   तनधारी ब्रह्म श्रीराम में ही निराकार ब्रह्म की सर्व व्यापकता तथा सर्वज्ञता उजागर की और समस्त  मानवता को "परब्रह्म" के साकार और निराकार ब्रह्म की अभिन्नता से अवगत करा दिया  !

पूछहु  मोहिं  कि  रहों कह   मैं पूछत सकुचाऊ !
जह न होहु तहं देहु कहि , तुम्हहिं देखावौं ठाऊँ ![
[अयों .कां - दोहा १२७ ]

[ Ram , I wonder , you are asking me to suggest [tell you ] the spot where you should have your abode . Dear I hesitate to  ask you to name a single spot in this entire universe , where you are not already present ]

इसके अतिरिक्त राम चरित मानस' के अरण्य काण्ड में भाई लक्ष्मण ने बड़े भैया राम से  ईश्वर ,जीव , माया  एवं भक्ति सम्बन्धी जिज्ञासा की--

लक्ष्मण के प्रश्न :

कहहु ज्ञान बिराग अरु माया, कहहु सो भगति करहु जेहि दाया !! 
[अरण्य ,१३/ ४]

[ O Lord, Kindly discourse to me on spiritual wisdom and dispassion as also on MAYA [Illusion] : and also speak to me about BHAKTI [devotion] about which it is said that - it wins Your GRACE ]

ईश्वर जीव भेद प्रभु सकल कहौ समुझाई !
जाते होई चरण रति ,सोक मोह ,भ्रम जाई !!
[अरण्य .दोहा १४ ]

Please also explain to me all the difference between GOD and the individual soul so that I may be devoted to THEE and my sorrows ,infatuations, and delusion may vanish .]

प्रत्युत्तर में श्री राम ने लक्ष्मण को संक्षेप में ही बताया :

             मैं अरु मोर मोर ते माया ! जेहि बस कीन्हे जीव निकाया !![अ .१४/१]
            गो गोचर जहँ लगि मन जाई ! सो सब माया जानेहु भाई  !![अ .१४/२]

The feeling of "I" and "Mine" and "You" and "yours" is MAYA.which holds sway over all created beings., Whatever is perceived by the senses  and that which lies within the reach of the mind , know it all to be MAYA.

माया ईस न आपु कहूँ  जान कहिअ सो जीव  !
बंध  मोच्छ  प्रद   सर्बपर     माया प्रेरक सीव  !!
[अरण्य  कांड - १५ ]

That alone deserves to be called a JIVA  (individual soul) which knows not MAYA  nor GOD nor ones own self , And SIVA  (GOD) is HE who awards bondage and liberation [according to what one deserves ] HE transcends all and is also the motivator of Maya.


पूज्य बाबू ने तत्पश्चात "मानस" के एक अन्य सत्संग की चर्चा की ! यह  अति ज्ञान प्रदायक गुरु शिष्य सम्वाद था  ;

"काकभुशुण्डि -गरुड़ सम्वाद" ; बाबू से सुने इस प्रसंग ने हमे अति प्रभावित किया -

१९७५-१९७८ में अपने "गयाना साउथ अमेरिका" प्रवास में वहाँ के हिंदू मंदिर के पुरोहित पंडित गोकर्ण शर्मा के अनुरोध पर हमने गाय्नीज़ गायकों के सहयोग से इस सम्वाद के कुछ अंश रेकोर्ड किये और उस देश का सर्व प्रथम "एल पी" निर्मित करवाया !

लीजिए पहिले वह 'एल पी' चालू कर लीजिए और उसके साथ साथ प्रासंगिक कथा और "भुशुण्डिजी - गरुड़ संवाद" का भाष्य भी पढ़ लीजिए :





रणक्षेत्र में लीला करते हुए श्री राम मेघनाद के नाग पाश में बंध गये ,और भगवान विष्णु के वाहन पक्षीराज गरुड़जी ने उन्हें नागपाश से मुक्त किया !  इस घटना से गरुड़जी अति भ्रमित हो गये ! उन्हें रामजी के ईश्वरीय अस्तित्व में संदेह होने लगा , उन्हें अहंकार और अभिमान हुआ ! मनः व्यथा से  व्याकुल हो  गरुड़जी ,अपनी शंकाओं के समाधान हेतु  नारदजी  के पास गये ! नारदजी  ने उन्हें शिवजी के पास और शिवजी ने उन्हें परम ज्ञानी काक भुशुण्डिजी  के पास भेजा !

पक्षिराज गरुड़  ने व्यास आसन पर आसीन परम ज्ञानी श्री काग भुशुण्डिजी  से रामचरित का पाठ सुना और उसके पश्चात उन्होंने कागभुशुण्डिजी  से विनती की कि कृपया वह उनके  प्रश्नों का उत्तर देकर  उसका शंका समाधान करें :

गरुड जी के प्रश्न थे :

प्रथमहिं  कहहु नाथ  मत धीरा  ! सबते   दुरलभ  कवन सरीरा  !!
Tell me my learned Lord which "physical form"  is most difficult to obtain ?.

काग भुशुण्डिजी  का उत्तर :

नर तन सम नहिं कवनिउ देही ! जीव   चराचर   जाचत  जेही !!
नरक स्वर्ग अपबर्ग निसेनी   ! ज्ञान बिराग भगति सुभ  देनी !! 
Human form is the most excellent  of all forms and it is the desire of all living creatures to obtain . It is the ladder that takes the soul tc final emancipation     and it is the human form only which is blessed with wisdom dispassion and devotion . 

गरुड़जी का प्रश्न  :

बड दुःख कवन कवन सुख भारी !  सोई संक्षेप हि कहौ विचारी !!
My Lord which is the worst suffering  and what is the greatest happiness ?

काकभुशुण्डिजी  का उत्तर :

नहिं दरिद्र सम दख जग माही ! संत  मिलन सम सुख जग नाहीं !!
There is no suffering in the world so great as poverty .and no happiness like that which results from communin  with saints  

अगले प्रश्न :

संत असंत मरम तुम जानहु ! तिन्ह कर सहज  सुभाव  बखानहु!!
Now my Lord tell me about the essential characteristics of saints and the evil , for this is the secret you understand .  

उत्तर :

पर उपकार वचन मन काया ! संत सुभाव सहज खग राया !! 
संत सहें दुःख परहित लागी !  पर  दुःख हेतु असंत अभागी !! 
Saints are charitable to others in thoughts words and deeds and they are always willing to help others while the evil rejoices over others misery

प्रश्न : .
  
कवन पुण्य श्रुति बिदित बिसाला ! कहहु कवन अघ परम कराला!!
What is the greatest virtue and which is the worst sin ?

उत्तर :

परम धरम श्रुति विदित अहिंसा ! परनिंदा सम अघ न गरीसा !! 
परहित सरिस धरम   नहीं भाई !  पर पीड़ा सम् नहिं अधमाई !!
The greatest virtue is nonviolence and speaking ill of others is the worst sin.
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 (क्रमश )
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निवेदक: व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"
सहयोगिनी : श्रीमती कृष्णा भोला श्रीवास्तव
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1 टिप्पणी:

Shalini kaushik ने कहा…

bahut sarthak gyan prapt hota hai aapki har post se .aapko bhi ramnavmi kee hardik shubhkamnayen .सुन्दर आध्यात्मिक.भावात्मक अभिव्यक्ति ह्रदय को छू गयी आभार बहुत बहुत शुभकामनायें जिम्मेदारी से न भाग-जाग जनता जाग" .महिला ब्लोगर्स के लिए एक नयी सौगात आज ही जुड़ें WOMAN ABOUT MANजाने संविधान में कैसे है संपत्ति का अधिकार-2