गुरुवार, 4 अप्रैल 2013

संतत्व की साधना

आदर्श गृहस्थ संत के सतसंकल्प 
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संत महात्मा छोटी छोटी कथाओं के द्वारा जन साधारण को गूढ़ आध्यात्मिक रहस्य समझा देते हैं ! मैंने वर्षों पूर्व एक महापुरुष के श्री मुख से ऎसी अनेक कथाएं सुनी थीं ! उनमे से एक जो मुझे आज भी याद है , आपको सुनाता हूँ :
  
एक किसान था  ,जिसने अपने जीवन के अंतिम दिनों में , अपनी भूमि पर सैकड़ों आम के वृक्ष आरोपित किये ! स्वजन सम्बन्धियों और मित्रों ने उससे पूछा कि " अब चलाचली की बेला  में" आप इतने सारे बृक्ष क्यों लगा रहें हो ? ! इस जीवन में  खाना तो दूर की बात है  आप तो इनके  फलों को देख भी नहीं पाओगे ,फिर आप इतना श्रम क्यों कर रहे हो ?

 उस किसान का उत्तर बहुत ही सारगर्भित था ! उसने कहा ,बाल्यावस्था में मैंने  जो भी फल खाए ,जिनके अमृत तुल्य रस का सदुपयोग किया , वे सब  बृक्ष मेरे पूर्वजों ने आरोपित किये थे !  उन की पुण्यायी और , उनके परिश्रम के फलस्वरूप मुझे वे मीठे फल खाने को मिले  ! मैं आज जो बृक्ष बो रहा हूँ उनके फलो का उपभोग भविष्य में , मेरे वंशज तथा गाँव वाले करेंगे !

इस छोटी सी कहानी द्वारा उन संत महापुरुष ने निसर्ग का एक अति महत्वपूर्ण नियम हमे समझाया -"निष्काम भाव से की हुई कोई भी क्रिया व्यर्थ नहीं जाती , उस क्रिया का सुफल , कभी न कभी , किसी न किसी  के काम आता ही है ! प्रागैतिहासिक काल के वैद्य सुषेण , धन्वन्तरी आदि द्वारा पहचानी जडी बूटियाँ तथा उनसे निर्मित औषधियां आज तक मानव का कल्याण कर रहीं हैं ,लाखों करोड़ों को जीवन दान दे रही हैं , मृतप्राय जीवों को संजीवनी शक्ति प्रदान कर रही हैं !

हाँ हम ,गृहस्थ संत माननीय शिव दयाल जी की चर्चा कर रहे थे ! वह हमारी धर्मपत्नी कृष्णा जी के पिता सदृश्य बड़े भाई थे ! उन्हें हम दोनों ही बड़े आदर तथा  श्रद्धा  से "बाबू"' कह कर पुकारते थे ! प्रियजन   उनकी जीवनी में  उपरोक्त कथा की सार्थकता  प्रत्यक्ष  रूप में बिम्बित हो रही है ! वह  आध्यात्मिकता के क्षेत्र में हमारे प्रथम मार्ग दर्शक थे !

आत्मोत्थान हेतु , उन्होंने अपने पूर्वजों एवं गुरुजनों द्वारा आरोपित वृक्षों से जो बीज मंत्र ग्रहण किये , वे थे : [१]. जीवन में अपना "लक्ष्य " निर्धारित करना [२]. लक्ष्य प्राप्ति हेतु दृढ़ संकल्प करना  [३]. स्वधर्म का अक्षरशः पालन करना  [४]  मन में 'प्यारे प्रभु' की स्मृति संजोये हुए कर्तव्य परायण बने रहना  !

बालकपन से ही शिवदयाल जी के पिताश्री ,उन्हें "महान" बनने को प्रोत्साहित करते रहें !पिताश्री उन्हें 'श्री मोती लाल नेहरू' के समान महान एडवोकेट तथा उच्चतम न्यायालय के वरिष्ठ एडवोकेट और न्यायाधीश के रूप में देखना चाहते थे ! पर जैसा आप जानते हैं कि हरि इच्छा से उनका यह स्वप्न साकार नहीं हो पाया ! शिवदयाल जी ने प्रेक्टिस चालू की और एक वर्ष के भीतर ही उनके पिताश्री परलोक सिधार गये !

ऐसे में शिवदयाल जी ने स्वयम ही अपना लक्ष्य निर्धारित किया और उसकी प्राप्ति हेतु  तन मन से जुट गये ! अपने चेम्बर में ,मेज़ के सामने , दीवार पर , ठीक अपनी आँखों के आगे एक तख्ती पर उन्होंने अपने नाम निम्नांकित आदेशात्मक संदेश लिख रखा था :
 
प्रभु ने मुझे इस धरती पर महान बनने के लिए भेजा है ! 

मेरे संकल्प , मेरे विचार ,मेरे कार्य सभी महान स्तर के हों ! 

दूसरों के स्तर से हमे क्या लेना देना ?

अपनी अपनी करनी ,अपने अपने साथ ! 

सबके काम आऊँ ,किसी से कुछ न चाहूँ  !

"शिवदयाल"


उपरोक्त संकल्प उस होनहार पौधे के थे जिसे 'खिजां' ने पनपने से पहले ही सुखा देने की जुर्रत की थी ! इस  पौधे का नाम पिताश्री "परमेश्वर" ने रखा था "शिव" और उनके   नाज़ुक कंधों पर अपनी "कच्ची" गृहस्थी का पूरा भार डाल कर ,अल्पायु में अपने लोक प्रस्थान कर गये थे !

शिवदयाल जी के पिताश्री "परमेश्वर दयाल जी" दयालुता के साकार स्वरूप थे !  उनके देहावसान के पूर्व उनकी मित्रमंडली तथा उनके परिवार का कोई भी व्यक्ति यह नहीं जानता था कि अपनी कमाई का कितना भाग वह अनाथ, असहाय, व निर्धन बालिकाओं के विवाह पर , साधनहीन मेधावी अनाथ बच्चों की पढाई की व्यवस्था करने में तथा  अपाहिज  भिक्षुओं  तथा  निर्धन रोगियों के इलाज में व्यय करते थे ! परिवार तो बड़ा  था ही उस पर घर में आने जाने वाले , दूर के और नजदीकी  रिश्तेदार भी कम न थे ! दो चार रिश्तेदारों के बच्चे साल साल भर यहीं घर पर रह कर उनके संरक्षण  में अपनी स्कूली पढाई पूरी करते थे !  इसके अतिरिक्त उन्होंने लोक कल्याण हेतु अपने नगर "मुरार"की प्रथम सार्वजनिक पुस्तकालय व वाचनालय [ Public Library / Reading room ] की स्थापना की , विधि सम्बन्धी हिन्दी के सर्वप्रथम "शब्द -कोष"  बनाने का बीडा उठाया  !

ऐसे कर्मठ , परोपकारी ,जनसेवक पिताश्री के असामयिक निधन पर २२-२३ वर्ष की छोटी  अवस्था में ही ,अचानक  विरासत  में मिले उपरोक्त सभी  पारिवारिक  एवं सामजिक उत्तरदायित्वों को - "योग़ : कर्मसु कौशलम" की पृष्ठभूमि  पर लोह-अक्षरों में अंकित  करके  श्री शिव दयालजी  ने युवावस्था में ही अपने लिए सत्य और धर्म की राह निश्चित कर ली !  गुरुजनों से प्राप्त  मार्गदर्शन एवं आत्मचिंतन से उन्होंने 'दैविक संस्कार' ग्रहण किये तथा जीवन की दिशा निर्धारित की,  एवं कर्मठ योगियों के समान जीवन जीने का संकल्प लिया !

यह कैसे सम्भव हुआ :

पिताश्री परमेश्वर दयाल जी ने अपने सात वर्षीय ज्येष्ठ पुत्र  शिव दयाल को  अयोध्या स्थित गुरुद्वारा "ऋश्याश्रम रानुपाली" के महंत बाबा नारायणरामजी से दीक्षा दिलवा दी ! यह पन्थ बाबा गुरु नानकदेव जी  के ज्येष्ठ पुत्र बाबा "श्रीचंदजी" ने स्थापित  किया  था ! शिवदयाल जी की मां श्रीमती गिरिजेश्वरी देवी ( ब्रह्मलीन हो जाने के कारण जिनका प्यार-दुलार इन्हें केवल ११ वर्ष तक ही मिल पाया } ने  बाल्यावस्था  में ही  तुलसी के
' राम चरित मानस  का  "राम-हनुमान-मिलन" प्रसंग सुनाकर उन्हें "परब्रह्म राम" की व्यापकता तथा उनके  निष्काम सेवक श्री हनुमान जी की अनन्य भक्ति से परिचित करवाया तथा इनके चरित्र से  विनम्रता, अनुशासन , कर्तव्य परायणता , पितृ भक्ति , सेवा-सिमरन  आदि  जीवन मूल्यों के बीज बो दिये  !

इसके अतिरिक्त परिवार में पूर्वजों के समय से ही सिद्ध महापुरुषोंके आने जाने से श्री शिव  दयाल जी को शैशव से  ही अनेकानेक महात्माओं का सान्निध्य प्राप्त  हुआ ! इन   सत्संगों का भरपूर लाभ इन्होंने  उठाया ! उन्होंने सब से कुछ न कुछ सीखा  ! भ्रमर की भंति सबसे मकरंद संचित किया ,जीवन का प्रेय और श्रेय निर्धारित किया ,जीवन को  साधनामय  बनाया और फिर उसका सुरस स्वजनों में वितरित किया ,परिवार के सदस्यों में मानवीय मूल्यों का बीज आरोपित किया !

गृहस्थ संत श्री शिव दयालजी ने पूर्वजों से , संस्कार से ,रूचि से ,कर्मभूमि से ,स्वाध्याय से ,संत-समागम से जो जाना ,समझा ,माना ,आचार-व्यवहार में उतारा , अपनी निष्ठा ,समर्पण और अथक प्रयास से चरितार्थ किया वही  सर्वहितकारी  बीज बन गया ,भावी पीढ़ियों के लिए आदर्श पथ प्रदर्शक ! अन्ततोगत्वा यह उनकी अपनी पहचान बन गया !


प्रियजन हमने श्री शिव दयालजी  के जीवन में चरितार्थ होते देखा है प्रज्ञाचक्षु स्वामी शरणा नंदजी महाराज  के इस वक्तव्य को  कि "कर्तव्य निष्ठ होने से कर्तव्य परायणता फैलती है ! समझाने से नहीं ,उपदेश से नहीं ,शासन करने से नहीं ,भय से नहीं ,प्रलोभन देने से नहीं "


गृहस्थ संत माननीय शिव दयालजी की मान्यता थी कि
१] महान बनना है तो महान विचार रखो ,महान कार्य करो ,और महान व्यवहार करो,
२] विनम्र बनो ,
३] कुसंग से  बचो
४] करनी में सावधान रहो ,
५] परचर्चा मत करो , परनिंदा होगी ही नहीं
६] चरित्रवान बनो
७] त्याग और सेवा से महान कार्य करने वाले महापुरुषों के पद चिन्हों का अनुकरण करो !८] गुरुजनों के आशीर्वाद लेते रहो

स्वयम वे सबको आशीर्वाद देते थे ---" महान बनो "

उनका कथन था  कि महात्मा गांधी और डा-राजेन्द्र प्रसाद सत्य ,अहिंसा ,सेवा ,निर्मलता ,सरलता ,विनम्रता व-आस्था और न्यायोचित कर्तव्यनिष्ठता के पथ पर चलकर अपने युग के महानतम पुरुष हुए ! इन्हें मानवता युगों युगों तक भूल नही पायेगी !

इतिहास साक्षी है कि महान व्यक्तियों ने  मानवीय मूल्यों को व्यावहारिक  बनाकर लोक कल्याण का बीज बोया है ! 

"प्रभु ने हमे अलौकिक विवेक इसलिए दिया है कि हम अपने दोषों को जानकर अपने आपको ,न्याय पूर्वक निर्दोष बनालें !" अपने अन्तःकरण की शुद्धि के लिए तथा महानतम दिव्य जीवन जीने के लिए वे इस कसौटी पर स्वयम अपने को  परखते रहते थे -------वह अपनी  दिनचर्या की   समय सारिणी  बना कर,  अमल करते रहने के लिए हर घड़ी अपनी आँखों के सामने  उसको अपनी मेज़ पर  रखते थे ! पहले बता चुका हूँ कि अपने आचरण को सतत  संत स्वभाव में ढालने के लिए उन्होंने तुलसी का यह पद " कबहुक हों यह रहनी रर्होंगो " फ्रेम करवा कर अपनी मेज़ के सामने लगा रखा था !

स्वामी विवेकानंद ने कहा था "जब तक जियो ,सीखो "
श्री शिव दयालजी का सूत्र था कि उपरोक्त सूत्र में यह जोड़ लो "जो सीखो ,वैसा जियो "
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निवेदक : व्ही. एन.  श्रीवास्तव "भोला"
सहयोग : श्रीमती कृष्णा भोला श्रीवास्तव
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