बुधवार, 19 जून 2013

अनंतश्री स्वामी अखंडानंद सरस्वती , माननीय शिवदयाल जी




अनंतश्री स्वामी अखंडानंद जी महाराज
एवं उनके स्नेहिल कृपा पात्र 
माननीय शिवदयाल जी
(गतांक से आगे) 

प्रियजन ,आपको याद दिलाऊँ कि नवम्बर २००८ में श्री राम कृपा से  हस्पताल में "वेंटिलेटर" के सहारे जीवन दान मिलने पर मैंने "परमगुरु" के आदेश का पालन करते हुए स्वस्थ होते ही २००९ के मध्य से हिन्दी में यह ब्लॉग लेखन शुरू किया था ! तब से आज तक आप सभी स्वजनों की शुभकामनाओं एवं गुरुजन के आशीर्वाद एवं प्रेरणा से मैं "परमप्रभु" द्वारा निर्धारित उद्देश्य की पूर्ति हेतु ,अपनी क्षमता के अनुरूप निज अनुभवों तथा संत-महात्माओं के आकलन पर आधारित ऐसे आदर्श व्यक्तियों के सदगुण प्रकाशित करने का प्रयास कर रहा हूँ जिनकी रहनीसहनी,जिनके आचारविचार और सद-व्यवहार के अनुकरण से मानवता का सर्वांगीण विकास सम्भव है ! 

"पूर्व-जन्म के संस्कार, मातापिता की पुन्यायी एवं प्रभु कृपा  से २५-२६ वर्ष की अवस्था में ही मुझे पूज्यनीय "बाबू" -शिव दयालजी जैसे आदर्श गृहस्थ -संत  मिल गये परन्तु स्वाभाविक ही है कि मेरे पास ऐसी दिव्य दृष्टि नहीं है कि उनके  सद्गुणों , आत्मिक दिव्यता एवं आध्यात्मिक पहुँच को उजागर कर सकूं !


 अधमाधम  निर्बुद्धि  मैं  निर्गुण निपट गंवार 
 किस विधि वर्णन कर सकूं उनके सुगुण अपार
(भोला )
,अतः  मैं (भोला ) मदद ले रहा हूँ  श्री शिवदयालजी के सम्पर्क में आये , उनके समकालीन भारत भूमि के उन महान संत महात्माओं का, जिन्होंने  "बाबू" को अति निकट से देखा ,परखा, जांचा और  उन्हें सर्व गुण सम्पन्न साधक एवं गृहस्थ संत  मान कर उनकी भूरि भूरि  प्रशंसा  की ! 

"बाबू" को "आदर्श गृहस्थ  संत" की उपाधि देने वाले संत महात्माओं के नाम की एक लम्बी सूची है ! मैं केवल उन महात्माओं के विचार आपको बताउंगा , जिनसे "मैं" अथवा "कृष्णा जी" स्वयम मिल चुके हैं और जिनके मुखारविंद से हमने स्वयम "बाबू" के विषय में कुछ सुना है ! 

इस क्रम में :  
पिछले आलेखों में मैंने बताया है कि ऋषिकेश के स्वामी शिवानंद जी महाराज [संस्थापक ,"डिवाइन लाइफ सोसाईटी"] ने माननीय श्री शिवदयालजी  को अनेक दशक पूर्व ही "संन्यासी जज" की उपाधि दी थी ! कृष्णा जी स्वामी शिवानंद जी से बचपन में मिल चुकीं हैं ! महाराज की  शिष्या ,साध्वी सन्यासिनी "शांता नंदा जी" से मिलने का सौभाग्य मुझे भी प्राप्त हुआ था ! स्वामीजी पूज्यबाबू का बहुत सम्मान करतीं थीं और उन्हें "एक दिव्य महात्मा" कहती थी ! उन्होंने मुझसे ऐसा कहा था !



परमार्थ निकेतन ऋषिकेशके "मुनि महाराज" श्री १०८ स्वामी चिदाननद जी श्री शिव दयालजी  के आदर्श गार्हस्थ जीवन की प्रशंसा  करते नहीं थकते थे ! बाबू को श्रद्धांजली अर्पित करते हुए उन्होंने कहा : "बाबूजी एक कुटुंब वत्सल गृहस्थ होकर भी सच्चे विरागी संत थे ! बाबूजी निष्काम कर्मयोगी थे ! उनका प्रत्येक कर्म परमार्थ एवं अंतःकरण शुद्धि के लिए होता था ! भगवत गीता का सार उन्होंने "नाम जपता रहूं काम करता रहूं के सूत्र में अनुवादित किया  और इसे जीवन जीने का मंत्र बनाया !"बाबू जी वह ज्योति थे जो जीवन पर्यंत तेज और प्रकाश बिखेरती रही और बुझ कर भी सुगंध दे रही है !"

इनके अतिरिक्त श्री श्री मा आनंदमयी ,श्री स्वामी चिन्मयानंदजी,गीता वाटिका के अनंतश्री राधाबबा ,श्री सत्य साईं बाबा आदि दिव्य आत्माओं ने भी बाबू  को बहुत सराहा है ! हम दोनों [भोला-कृष्णा] को भी इन सभी दिव्यात्माओं से अति निकटता से मिलने का सौभाग्य मिला पर बाबू के विषय में हम कोई चर्चा इनसे नहीं कर पाए ! इतना परन्तु जग जाहिर है कि ये सभी महात्मा बाबू को पहचानते थे ! 
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 "बाबू"  के प्रति अनंतश्री स्वामी अखंडानंद सरस्वती के विचार  तथा उनके द्वारा बाबू का मार्गदर्शन 

( पहले बता चुका हूँ कि वर्तमान काल के प्रकांड वेदान्तिक विद्वान संत शिरोमणि स्वामी सत्यमित्रानन्द जी ने "बाबू" के विषय में हाल में ही यह कहा था कि  "उन जैसे सद्पुरुष कभी कभी ही इस धरती पर आते हैं ")


परन्तु महाराजश्री अखंडानंद जी ने वर्षों पूर्व, संभवतः १०७४-७५ में ही बाबू की उच्चस्तरीय आध्यात्मिक स्थिति के विषय में मुझसे कुछ ऐसे ही शब्द कहे थे !  कैसे ? शायद यह जान कर कि मैं बलियाटिक हूँ और पूरब में बहनोई तथा दामाद को 'पाहुन' कह कर संबोधित करते हैं ,विनोद का पुट दे कर  उन्होंने यह कहा कि - " पाहुन, आपके "बाबू" जैसे महान् गृहस्थ संत यदा कदा ही  मानवता के धार्मिक संस्कारों को परिपक्व करने के लिए  आते हैं " !
अब् आगे की कथा सुनिए :

अपने १ जून वाले ब्लॉग में मैं आपको सन १९७८ में बिरला मंदिर में पूज्य बाबू एवं अनंतश्री अखंडानंदजी सरस्वती महाराज के व्यक्तिगत मिलन की चर्चा कर रहा था ,  

पूज्य  बाबू जल्दी जल्दी कदम बढाकर स्वामीजी के श्री चरणों को स्पर्श करने के लिए झुके तभी  महाराजश्री ने आशीर्वाद देते हुए पूछा "सो अब रिटायरमेंट के बाद आगे का क्या कार्यक्रम बना रहे हो  ,शिवदयाल जी 


वार्तलाप का द्वार स्वामी जी ने स्वयमेव खोल दिया था ! बाबू सोच रहे थे कि " प्रभु कितने कृपालु हैं ? महाराजश्री से वह ही बुलवा दिया जो मैं सुनना चाहता हूँ !" बाते करते करते दोनों बिरला मंदिर के पिछवाड़े वाले उद्यान में एक बेंच पर बैठ गये !  

बाबू ने महाराजश्री के प्रश्न - "अब् आगे क्या करना है ? " के उत्तर में अपना मनोभाव व्यक्त करते हुए  कहा - सोचता हूँ कि शेष जीवन प्रभु के श्रीचरणों की सेवा में व्यतीत करूं और पूर्णतः समर्पित होकर सतत हरि सिमरन करूं ! जिज्ञासुओं को वास्तविक  धर्म का   संदेश दूँ ! महाराज जी अब् तो दिवस का एक एक क्षण ,चौबीसों घंटे हरि भजन करने का मन  है ! 

स्वामीजी  ने अपनी दिव्य दृष्टि से श्री शिवदयालजी  की आध्यात्मिक उपलब्धियों तथा उनके गहन  संतत्व का आकलन किया हुआ था अतएव  मुस्कुरा कर पूछा,  "अति सुंदर विचार है, परन्तु करोगे कैसे ?


फिर अपनी आपबीती सुनाते हए कहने लगे  "शिवदयाल जी , वर्षों पूर्व मैंने भी कुछ ऐसा ही संकल्प कर के घरबार - गृहस्थी का भार  छोड़ कर सन्यास ग्रहण किया था ! परन्तु आज भी  मेरा  वह स्वप्न साकार नहीं हो सका है !   किसी संयुक्त परिवार के मुखिया के सदृश्य  मुझे भी अपना कुछ  न कुछ समय आश्रम के प्रबंधन और नियमन  में व्यतीत करना पड़ता है ! 


शिवदयाल जी ,मेरी दृष्टि में आपका गृहस्थ जीवन हम जैसे सन्यासियों के तपोमय जीवन से कहीं अधिक सन्यासवत रहा है ! लगभग दो दशकों से मैं आपकी साधनामयी दिनचर्या से अवगत हूँ ! विधिवत जाप, ध्यान, सिमरन,भजन ,पूजन् ,मनन , स्वाध्याय के साथ साथ योगासन करना विचाराधीन मुकद्दमों के विषय में गहन चिंतन करना और एकांत में  डीकटोफोन / टेप रेकोर्डर पर पूर्णतः ईश्वरीय प्रेरणा पर आधारित उन  मुकद्दमों के निर्णय लिखाना , मैंने अति निकटता से देखा है ! उसके बाद आपका परिवार के प्रति अपनी जिम्मेदारियां निभाना आपकी संन्यासवत अनवरत साधना का प्रतीक है ! और हाँ -


पारिवारिक प्रार्थना में आपका प्रभु से ये कहना कि " जो हुआ वह  आपकी आज्ञां से हुआ ,जो होगा वह भी आपकी आज्ञा और कृपा से होगा और उसमे ही हमारा कल्याण निहित होगा ", इसका द्योतक है कि आप पूर्णतः समर्पित हैं , पूर्णतः शरणागत हैं ! +आप सभी कार्य "राम काम" मान कर करते हैं , कार्य करते समय सतत नाम जाप करते हैं और हर क्षण आप अपने प्यारे प्रभु को अपने अंग-संग अनुभव करते हैं ! आपके आचार ,विचार आपका व्यवहार  ईशोपासना है ,प्रभु को समर्पित है ! 


आज की परिस्थिति में ,आपको  इस सत्य को स्वीकार करना होगा कि इतने वर्षों से जिस व्यवसाय को "राम -काज" मान कर करते आये हो वह  अब आपका सहज स्वभाव बन गया है !

बाबू ने उत्सुकता से पूछा, "फिर क्या करूं  ?" 


स्वामीजी ने सीधा सा जवाब दिया ; सुप्रीम कोर्ट में एपियर होने के लिए अपना विधि लायसेंस रिन्यू कराओ और पुनः प्रेक्टिस शुरू कर दो ! सेवा भाव  से वकालत करो !वकालत से अर्जित आय को परोपकार में लगाओ ,दीन जनों के केस मुफ्त करो  ,स्त्री बाल-शिक्षा एवं व्यक्तित्व के विकास हेतु तन मन धन से जुट जाओ !   


वकालत से कमाया धन अपनी गृहस्थी के संचालन पर मत व्यय करो , अपना एवं अपने परिवार का गुजारा अपनी पेंशन से करो !


बाबू की मूलभूत  मान्यता  स्वामीजी की धारणा के ही अनुरूप  थी ! यदि वह थोड़ा भी राजनीतिक जोर लगाते तो उन्हें कोई न् कोई कमीशन किसी न् किसी प्रदेश की गवर्नरी मिल ही जाती ! [कदाचित ऑफर भी हुई थी] पर उन्होंने अस्वीकार किया !

ऐसे में महाराजश्री की ,प्रेरणादायी मंत्रणा ने उनके विचारों को और भी दृढ़ कर दिया ! सम्भवतः इसी विचार को पूज्य बाबू ने "सुखी सार्थक जीवन"  में (पृ .१५० ) उजागर किया और कहा है कि "वास्तव में संन्यास कोई  पृथक आश्रम नहीं है अपितु त्याग ,सेवा और प्रेम से परिपूर्ण वृत्ति का नाम सन्यास है !"

इस आत्मीय वार्तालाप के अनंतर  स्वामीजी के मार्मिक एवं युक्तिपूर्ण सुझाव को पूज्य बाबू ने शिरोधार्य  किया ! उन्होंने पुनः वकालत चालू की और सुप्रीम कोर्ट जाने लगे !

जीवन भर के  चिंतन -मनन के क्रियात्मक अनुभव की नींव पर उन्होंने  व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास की शिक्षा की योजना बनाई !,पुस्तकों के माध्यम से आध्यात्मिक ,सांस्कृतिक ,धार्मिक सुसंस्कारों के व्यावहारिक स्वरूप का प्रचार  -प्रसार का कार्य जारी रखा ! जन जन में व्यक्तित्व विकास की  जागृति के प्रयोजन से,आध्यात्म -तत्व से सम्बन्धित रचनाओं  के साथ साथ विकसित व्यक्तित्व , सर्वांगीण व्यक्तित्व विकास ,पुष्प १,पुष्प २ ,पुष्प ३ ,तथा सुखी सार्थक जीवन आदि अनेक पुस्तकों  की रचना की ; जिन में से कुछ सस्ता  साहित्य मंडल द्वारा प्रकाशित हुईं  !


पूज्य बाबू   की रचनाओं में परमार्थ और व्यवहार दोनों का   समन्वय  करने की  एक अद्भुत कला निहित  है ; जिसके आधार पर कोई भी गृहस्थ  आंतरिक जगत के  विज्ञान से ऊर्जा ग्रहण कर  संत के समान सात्विक जीवन जी सकता है !
किसी महापुरुष का वक्तव्य है कि----- "जिस जीव को 'भगवद कृपा' से शास्त्रों का  समुचित ज्ञान होता है और जो उस ज्ञान के अनुरूप जीवन जीकर अपना सर्वांगीण विकास कर लेता है उस जीव को ,जीते जी , धरती पर  ही  परम- आनंद, परम-शान्ति , उच्चतम सफलता , सुख-समृद्धि ,विजय , विभूति आदि बिना मांगे ही प्राप्त हो जातीं हैं और वह  असाधारण संतत्व का  धनी  हो जाता  है !   

हमारे "बाबू", माननीय जस्टिस शिवदयालजी ऐसे ही आदर्श गृहस्थ संत थे !


 वारे जाऊं भक्त  के जिसे भरोसा राम !
मनमुख में रख राम को करे राम का  काम !!
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निवेदक - व्ही.  एन..  श्रीवास्तव  "भोला"
सहयोग: श्रीमती कृष्णा भोला श्रीवास्तव 
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1 टिप्पणी:

ZEAL ने कहा…

धन्य हैं ऐसे लोग. नमन है .