मंगलवार, 22 अक्तूबर 2013

परम प्रेम - गतांक से आगे

"परमप्रेमरूपा भक्ति"
(गतांक से आगे)  

पौराणिक काल से आज तक मानव परमशांति ,परमानन्द तथा उस दिव्य ज्योति की तलाश में भटकता रहा है , जिसके प्रकाश में वह अपने अभीष्ट और प्रेमास्पद "इष्ट" -(परमेश्वर परमपिता) का प्रत्यक्ष दर्शन पा सके , उसका साक्षात्कार कर सके ! मानव के इस प्रयास को भक्तों द्वारा "भक्ति " की संज्ञा दी गयी !

भारतीय  त्रिकालदर्शी ,दिव्यदृष्टा ,सिद्ध परम भागवत ऋषियों  एवं वैज्ञानिक महात्माओं ने निज अनुभूतियों के आधार पर मानव जाति को " भगवत्- भक्ति"  करने के  विभिन्न साधनों से अवगत कराया ! 

नारद जी ने उद्घोषित किया कि 'प्यारे प्रभु'  से हमारा मधुरमिलन केवल परमप्रेम से ही सिद्ध होगा !  नारदजी वह पहले ऋषि थे जिन्होंने "परमप्रेम स्वरूपी भक्ति"  के ८४ सूत्रों को एकत्रित किया और उन्हें बहुजन हिताय वेदव्यास जी से प्रकाशित भी करवाया !

समय समय पर अन्य ऋषीगण जैसे पाराशर [वेद व्यास जी] ने  पूजा -अर्चन को ,गर्गऋषि ने कथा-श्रवण को और शांडिल्य  ने आत्मरति के अवरोध {ध्यान } को  परम प्रेम की साधना का साधन निरूपित किया !

इन अनुभवी ऋषियों ने अपनेअपने युगों के साधकों को आत्मोन्नति के प्रयोजन से भगवत्प्राप्ति के लिए  समयानुकूल  भिन्न भिन्न उपाय बताये !,उदाहरण के लिए उन्होंने  सतयुग में घोर तपश्चर्या , त्रेतायुग में योग साधना एवं यज्ञ ; द्वापर में पूजा अर्चन हवनादि विविध प्रकार के अनुष्ठान बताये  और   कलियुग के साधकों के लिए प्रेम का आश्रय लेकर "परमप्रेम स्वरूपा भक्ति" के प्राप्ति की सीधी साधी विधि बतलायी - "कथाश्रवण,भजन कीर्तन गायन"! 

कलिकाल के महान रामोपासक,  भक्त संत तुलसीदास की निम्नांकित चौपाई नारद भक्ति सूत्र की भांति ही अध्यात्म तत्व के मर्म को संजोये है! 

रामहि केवल प्रेम पियारा ! जान लेहू जो  जाननि हारा  !

 तुलसी के अनुसार उनके इष्टदेव श्रीराम को वही  भक्त  सर्वाधिक प्रिय है जो सबसे प्रेम पूरित व्यवहार करता है ! 

प्रज्ञाचक्षु स्वामी शरणानंदजी के अनुसार प्रीति का चिन्मय स्वरूप ,दिव्य तथा अनंत है ! जो चिन्मय है ,वह ही  विभु है ! उनका सारग्राही सूत्र है : -
"सबके प्रेम  पात्र हो जाओ, यही भक्ति है" 
"प्रेम के प्रादुर्भाव में ही मानव-जीवन की पूर्णता निहित है! "

सर्वमान्य सत्य यह है कि जहाँ "परम प्रेम रूपा भक्ति"  है ,वहीं रस है वहीं आत्मानंद और परम शांति है ! सच पूछिए तो हमारा आपका ,सबका ही "इष्ट" वहीं बसता है जहाँ उसे "परम प्रेम" उपलब्ध होता है !

प्रेमी भक्तों की सूची में सर्वोच्च  हैं :

(१) स्वयम "देवर्षि नारद" ! 

(२) त्रेता युग में अयोध्यापति महाराजा दशरथ जिन्होंने परमप्रिय पुत्र राम के वियोग में, तिनके के समान अपना मानव शरीर त्याग दिया था !

(३) बृजमंडल की कृष्ण प्रिया गोपियों का तो कोई मुकाबला ही नहीं है ! ये 
वो बालाएं हैं जिन्हें विश्व में "कृष्ण" के अतिरिक्त कोई अन्य पुरुष दिखता ही नहीं , जो डाल डाल, पात पात, यत्र तत्र सर्वत्र कृष्ण ही कृष्ण के दर्शन करतीं हैं ! दही बेचने निकलती हैं तो  दही की जगह अपने "सांवले सलोने गोपाल कृष्ण को ही बेचने लगतीं हैं !, 

चलिए अनादि काल और बीते हुए कल से नीचे आकर अपने  कलिकाल के प्रेमी भक्त नर नारियों की चर्चा कर लें ! 

 [ प्रियजन , उनकी कृपा से ,इस विषय विशेष पर कुछ तुकबंदी हो रही है ,नहीं बताउंगा तो स्वभाववश बेचैन रहूँगा सों  प्लीज़ पढ़ ही लीजिए ] 


प्रेमदीवानी मीरा ,सहजो  मंजूकेशी ,
यारी नानक सूर भगतनरसी औ  तुलसी , 
महाप्रभू चैतन्य प्रेम रंग माहि रंगे थे
परम प्रेम से भरे भक्ति रस पाग पगे थे
अंतहीन फेहरिस्त यार है उन संतों की 
प्रेमभक्ति से जिन्हें मिली शरणी चरणों की 
(भोला, अक्टूबर २१.२०१३) 

हां तो लीजिए उदाहरण कुछ ऐसे प्रेमीभक्तों के जिनके अन्तरंग बहिरंग सर्वस्व ही "परमप्रेम" के रंग में रंगे थे और जिनके अंतरमन की प्रेमभक्ति युक्त भावनाएं "गीत" बन कर उनकी वाणी में अनायास ही मुखरित हो उनके आदर्श प्रेमाभक्ति के साक्षी बन गये : --

प्रेम दीवानी मीरा ने  गाया 
एरी मैं तो प्रेम दीवानी मेरा दरद न जाने कोय" !
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गुरु नानक देव ने गाया -
प्रभु मेरे प्रीतम प्रान पियारे 
प्रेम भगति निज नाम दीजिए , दयाल अनुग्रह धारे
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 संत कबीर दास ने गाया :
मन लागो मेरो यार फकीरी में
जो सुख पाऊँ राम भजन में सों सुख नाहि अमीरी में
 मन लागो मेरो यार फकीरी में
प्रेम नगर में रहनि हमारी भलि बन आइ सबूरी में
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यारी साहेब ने गाया: 
दिन दिन प्रीति अधिक मोहि हरि की  
काम क्रोध जंजाल भसम भयो बिरह अगन लग धधकी
धधकि धधकि सुलगत अति निर्मल झिलमिल झिलमिल झलकी 
झरिझरि परत अंगार अधर 'यारी' चढ़ अकाश आगे सरकी
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हमारे जमाने के एक भक्त कवि श्री जियालाल बसंत ने गीत बनाया,
और ६० के दशक में हमारे बड़े भैया ने गाया   
रे मन प्रभु से प्रीति करो
प्रभु की प्रेम भक्ति श्रद्धा से अपना आप भरो
रे मन प्रभु से प्रीति करो
ऎसी प्रीति करो तुम प्रभु से प्रभु तुम माहि समाये 
बने आरती पूजा जीवन रसना हरि गुण गाये 
रे मन प्रभु से प्रीति करो
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महात्माओं की स्वानुभूति है कि हृदय मंदिर में प्रेमस्वरूप  परमात्मा के बस जाने के बाद जगत -व्यवहार की सुध -बुध विलुप्त हो जाती है और केवल प्रेमास्पद "इष्ट"का नाम ही याद रह जाता है ! 
अहर्निश, मात्र "वह प्यारा" ही आँखों में समाया रहता है !
वृत्तियाँ "परम प्रेम" से जुड़ जाती हैं .
और परमानंद से सराबोर हो संसार को भूल जातीं हैं !
जब सतत प्रेमास्पद का नाम सिमरन, स्वरूप चिंतन और यशगान होता है    तभी साधक को परमानंद स्वरूप 
 प्रियतम प्रभु का दर्शन होता है ! 
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आदर्श गृहस्थसंत हमारे बाबू ,दिवंगत  माननीय शिवदयाल जी 
के नानाजी ,अपने जमाने के प्रसिद्द शायर ,प्रेमी भक्त 
स्वर्गीय मुंशी हुब्बलाल साहेब "राद" की इस सूफियानी रचना में 
"मोहब्बत" - परम प्रेम का वही रूप झलकता है जैसा 
  गोपियों ने सुध बुध खोकर अपने प्रेमास्पद श्री कृष्ण से किया !
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राद साहेब फरमाते हैं 
मेरे प्यारे 

सबको मैं भूल गया तुझसे मोहब्बत करके ,
एक तू और तेरा नाम मुझे याद रहा


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तेरे पास आने को जी चाहता है
गमे दिल मिटाने को जी चाहता है

इसी साजे तारे नफस पर  इलाही

तिरा गीत गाके को जी चाहता है 

तिरा नक्शे पा जिस जगह देखता हूँ 

वहीं सिर झुकाने को जी चाहता है 
[कलामे "राद"]
गायक - "भोला" 
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लिंक -   http://youtu.be/Fl0kvV19G0c
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कहाँ और कैसे मिल सकता है वह परम प्रेम 
और ऎसी प्रेमाभक्ति ?
अगले अंक में इसकी चर्चा करेंगे,
आज इतना ही! 
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निवेदक : व्ही . एन . श्रीवास्तव "भोला"
सहयोग : श्रीमती कृष्णा भोला श्रीवास्तव 
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1 टिप्पणी:

shalini kaushik ने कहा…

तुलसी के अनुसार उनके इष्टदेव श्रीराम को वही भक्त सर्वाधिक प्रिय है जो सबसे प्रेम पूरित व्यवहार करता है !
bahut sundar v sahi bate kahi hain tulsidas ji ne .aabhar